इक्कीसवीं सदी की ओर

राजकमल प्रकाशन

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पुस्तक के बारे में
स्वतंत्रता के बाद भारतीय स्त्री की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। बहुत थोड़े पैमाने पर ही सही लेकिन इक्कीसवीं सदी की स्त्री-छबि बड़ी तेजी से आकार ग्रहण कर रही है। और हम उम्मीद कर सकते हैं कि नई सदी में वह भारतीय समाज की एक समर्थ और स्वतंत्र इकाई होगी। इस पुस्तक में संपादकीय सहित पैंतीस आलेख हैं जो भारत की महिलाओं के बारे में सर्वांगीण अध्ययन प्रस्तुत करते हैं।
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पुस्तक के चुनिंदा अंश
* भारत में नारी को जो अधिकार मिले, वे किसी विद्रोह के फलस्वरूप नहीं मिले और न ही पुरुषों के विरुद्ध कोई मोर्चा खोलकर। ये अधिकार डेढ़ सौ वर्षों की सामाजिक क्रांति के परिणामस्वरूप थे। देश के स्वाधीनता संग्राम में पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर जूझने के परिणामस्वरूप थे। केवल मात्र भावुकता या स्त्रियों के प्रति किसी प्रकार की संवेदना के फलस्वरूप भी ये अधिकार महिलाओं को नहीं दिए गए बल्कि भारतीय नारी ने अपनी योग्यता और कार्य कुशलता की स्वीकृति के आधार पर ही इन्होंने प्राप्त किया।
(' अस्तित्व और अधिकारों के समीकरण' से)
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* स्त्री शिक्षा संबंधी सारी कागजी कार्यवाही दुरुस्त है, लेकिन परिणाम क्यों नहीं निकला जो अपेक्षित था। आखिर, कमी कहाँ रह गई कि हमारी स्त्रियाँ वह सब कुछ हासिल नहीं कर पाईं जिसकी वे हकदार हैं संविधान सम्मत सभी अधिकार और शिक्षा संबंधी सभी अवसर प्राप्त होने पर भी नतीजा वही ढाक के तीन पात। आज का कटु सत्य यह है कि इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट अधिकांश नारियाँ उपेक्षित व तिरस्कृत हैं। नारी स्वतंत्रता के तमाम नारे उसकी दहलीज पर पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ जाते हैं और उसे इन्सानी दर्जा दिला पाने में कामयाब नहीं हो पाते हैं।
( जरूरत है ऐसी शिक्षा की जो जीवन जीना सिखाए' से)
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* यदि लड़की समाज से यह प्रश्न करे कि क्या लड़की का अपना कोई अस्तित्व है या नहीं? क्या उसकी अपनी कोई अस्मिता है या नहीं? क्या उसकी अलग पहचान है या नहीं? क्या उसके कुछ अधिकार भी हैं या वह केवल कर्तव्यों का निर्वाह करने के‍ लिए ही पैदा हुई है? तो इन प्रश्नों के ईमानदार उत्तर समाज के पास कदापि नहीं हैं। हाँ, झूठ-छल, का मुलम्मा चढ़ाकर उतार दिए जाते रहे, लेकिन किसे छल रहे हैं - नारी वर्ग को अथवा स्वयं को?
(' लड़की पैदा होने का अर्थ' से)
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समीक्षकीय टिप्पणी
' इक्कीसवीं सदी की ओर' एक ऐसी पुस्तक है जिसमें भारतीय नारियों की वास्तविक छबि का सांगोपांग अध्ययन हुआ है। प्रेम, बलिदान तथा विनम्रता की प्रतीक समझी जाने वाली नारी को परिवार और समाज में किस तरह की अपेक्षाएँ झेलनी पड़ती हैं, कर्तव्य के नाम पर उसे अपने अधिकारों से किस तरह वंचित रहना पड़ता है, देश का कानून नारी के पइत होने वाले अपराधों को रोक पाने में अक्षम क्यों है? समानता के हक की प्राप्ति के लिए महिलाओं को समाज में किस तरह जूझते हुए जीना पड़ता है? यह पुस्तक इन सवालों की मुकम्मिल तस्वीर पेश करती है।

पद्‍मा सचदेव, सुमन कृष्णकांत, रेखा दास, मणि माला, चित्रा मुद्‍गल, मृणाल पांडे, डॉ. सरोजनी प्रीतम, राजी सेठ, डॉ. एस.एन.सिंह जैसे लेखकों के आलेख इस पुस्तक में संजोए गए हैं।

इक्कीसवीं सदी की ओर
नारी सशक्तिकरण संबंधी आलेखों का संग्रह
संपादक : सुमन कृष्णकांत
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 224
मूल्य : 295 रु.

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