और कितने पाकिस्तान

'कितने पाकिस्‍तान' के बहाने विभाजन का इतिहास

jitendra
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पिछली सदी में जिन दो बड़ी घटनाओं ने हिंदुस्तान के आवाम और उसके आने वाले समूचे इतिहास की दिशा बदल दी, वो थी ब्रिटिश हुकूमत से हिंदुस्तान का आजाद होना और इस देश की धरती का भारत और पाकिस्तान नाम के दो टुकड़ों में विभाजन।

इन दोनों घटनाओं ने समूचे महाद्वीप का जीवन ही बदल दिया। कला-साहित्य-संस्कृति पर आज तक उस दुर्घटना की छाप देखी जा सकती है। जैसे आज नाजियों की समाप्ति के बरसों बाद भी, सरकारें बदल जाने और लोकतंत्र की स्थापना हो जाने के बाद भी जर्मनी नाजीवाद के कहर से उबर नहीं पाया और उनके हर काम में उस महा-विनाश की छाया किसी-न-किसी रूप में नजर आती ही है, उसी तरह उन्नीसवीं सदी की उस दुर्घटना और विनाश के दुर्गंध अब तक हमारे आसपास मौजूद है। किताबों के पन्नों पर अब भी खून के छींटे नजर आते हैं।

भारत और पाकिस्तान के विभाजन पर कितना कुछ लिखा गया, जाने कितने पन्ने रँगे गए, लेकिन दुख है कि कम ही नहीं होता। हिंदी में इस विषय को आधार बनाकर अनेक कृतियों की रचना की गई है। चाहे अब्दुल्ला हुसैन का द्यउदास नस्लें हों, कुर्तुल-ऐन-हैदर का द्यआग का दरिया , खुशवंत सिंह का द्यट्रेन टू पाकिस्तान और चाहे राही मासूम रजा का द्यआधा गाँव , हर किताब विभाजन की त्रासदी को अलग-अलग रूपों में बयान करती है। इसके अलावा सँस्मरणों की तो भरमार है।

इसी क्रम में सन 2000 में भारत-पाकिस्तान के विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित एक उपन्यास प्रकाशित हुआ। नाम था क्व द्यकितने पाकिस्तान । यह उपन्यास द्यउदास नस्लें और द्यआग का दरिया की अगली कड़ी था, जिसने उस पूरी परिघटना को देखने की एक नई नजर दी और दुखों को कुरेदने के साथ नए सिरे से सोचने पर मजबूर भी किया।

कमलेश्वर का नाम हिंदी साहित्य के लिए नया नहीं था, लेकिन द्यकितने पाकिस्तान ने उन्हें हमारी भाषा के अग्रणी रचनाकारों की श्रेणी में ला खड़ा किया। द्यकितने पाकिस्तान के बारे में कमलेश्वर ने लिखा था, द्ययह उपन्यास मेरे मन के भीतर लगातार चलने वाली एक जिरह का नतीजा है। उपन्यास में यह बेचैनी साफ नजर आती है, और जीवन को देखने की लेखक की नजर भी। वह मानव इतिहास की एक बड़ी परिघटना को जिस दार्शनिक स्तर पर समझ रहा है, और जिस संवेदना के साथ उसे परख रहा है, वह दृष्टि ही इस रचना को विशिष्टता का दर्जा देती है।

जाति, देश और धर्म की हमारी सारी परिभाषाओं को यह किताब सवालों के कटघरे में खड़ा कर देती है। वो कौन है, जो धर्म और जाति के नाम पर एक-दूसरे से नफरत करता है, एक-दूसरे का खून बहाता है। वो क्या चीज है, जो इंसान-इंसान के बीच घृणा का जहर बो देती है, जो हमें पशु से भी बदतर बना देती है। धर्म बड़ा है या इंसानियत? प्रेम महान है या घृणा? धर्म का मकसद क्या है? क्या हिंदू-मुसलमान-सिख और इसाई की रगों में अलग-अलग खून बहता है? इन सारे अनुत्तरित प्रश्नों का जवाब है, द्यकितने पाकिस्तान , जो पिछले पाँच हजार सालों के हिंदुस्तान और विश्व के इतिहास में साँप्रदायिकता की जडों को खँगालता है और साथ ही सौहार्द्र की जमीन भी बनाता चलता है।

यह साँप्रदायिक झगड़ों में खत्म हुए हर मृत व्यक्ति की दास्तान है और उसका हलफनामा, जो आने वाली समूची मानवता से सवाल कर रहा है कि द्यअब और कितने पाकिस्तान?द्य एशिया महाद्वीप में जगमगाते तीन देशों का इतिहास हजारों बेगुनाहों के खून से सींचा गया है, जो बिल्कुल निरपराध थे, जिन्होंने कभी किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा, जो अपने खेतों और अपनी धरती पर अन्न उगाते, मेहनत करते और अपने-अपने तरीकों से एक शांतिपूर्ण जिंदगी जीते थे। जिन्होंने कभी किसी को कुछ नुकसान नहीं पहुँचाया, लेकिन जिनका पूरा जीवन कुछ लोगों के अंधे स्वार्थों की बलि चढ़ गया। द्यकितने पाकिस्तान सवाल है, उन सब बेगुनाहों का।

इस उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उस घटना को अभी सिर्फ छथ वर्ष हुए हैं, जब यह उपन्यास पहली बार प्रकाशित हुआ था, लेकिन आने वाले समय में यह उपन्यास द्यक्लासिक की श्रेणी में शुमार होगा। द्यउदास नस्लें और द्यआग का दरिया के साथ द्यकितने पाकिस्तान के जिक्र के बगैर बात पूरी ही नहीं होगी। यदि कमलेश्वर के संपूर्ण कृतित्व को एक ओर रख दें, तो सिर्फ यह अकेला उपन्यास ही उन्हें मील का पत्थर साबित करने के लिए काफी है।

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