हिन्दी : मीडिया ने दिया नया कैनवास

- सुधीश पचौरी

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हर साल हिन्दी दिवस आता है, चला जाता है। हर साल सरकारी दफ्तरों में,स्वायत्त संस्थाओं में हिन्दी को लेकर कुछ सभाएँ हो जाती हैं। बैंकों में कुछ बातें हो जाती हैं। पब्लिक सेक्टर संस्थानों में कुछ हिन्दी-हरकत हो जाती है। कवि सम्मेलन टाइप कुछ हो जाता है। हिन्दी की समस्याओं पर चिंता कर ली जाती है।

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हिन्दी राष्ट्रभाषा बताई जाती है जबकि वह राजभाषा मात्र है और राष्ट्रभाषा राजभाषा में भेद है। हिन्दी प्रेमी लोग उसे राष्ट्रभाषा ही कहते हैं। तकनीकी तौर पर वह भारत की एक भाषा है और राजभाषा होने के कारण उसे केंद्र सरकारका एक हद तक समर्थन प्राप्त है। पब्लिक सेक्टरों में हिन्दी अधिकारी होता है वह इसीलिए।

उनके दफ्तरों में 'हिन्दी राष्ट्रभाषा है', 'हिन्दी में कामकाज करना चाहिए' ऐसे बोर्ड भी लगे होते हैं। कही-कहीं महात्मा गांधी का या अन्य किसी महापुरुष का हिन्दी को लेकर दिया गया वक्तव्य भी लिखा होता है। लेकिन हिन्दी वालों का रोना फिर भी नहीं थमता। हर हिन्दी दिवस पर हर कहीं हिन्दी के बिगड़ते रूप पर विद्वान चिंता करते हैं। लोकल प्रतिभाओं को इनाम आदि देते हुए वे दो-तीन बातें कॉमन कहते हैं : 'हिन्दी में अंगरेजी आ रही है। यह मीडिया ने किया है, बाजार ने किया है। यह हिन्दी साहित्यिक हिन्दी नहीं है। हमारे बच्चे हिन्दी को पसंद नहीं कर पा रहे हैं। हिन्दी वाले अपने बच्चों को अंगरेजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, और हिन्दी की चिंता करते हैं। यह चिंता झूठी है, इत्यादि।' ऐसी चिंताओं को हर कहीं सुना जा सकता है।

हिन्दी को खतरा पैदा हो रहा है। यह थीम शाश्वत सी बन चली है। लेकिन तथ्य एकदम अलग बात कहते हैं। तथ्य यह है कि हिन्दी लगातार बढ़ रही है, फैल रही है और वह विश्वभाषा बन चली है। उसकी 'रीच' हर महाद्वीप में है और उसका बाजार हर कहीं है। हमारी फिल्मों के गानों के एलबम अमेरिका, अफ्रीका, एशिया, योरप कहीं भी मिल सकते हैं और फिल्में एक साथ विश्व की कई राजधानियों में रिलीज होती हैं। भारतवंशी हिन्दी मूल के लोग दुनिया के हर देश में रहते हैं और उनकी हिन्दी इस हिन्दी जैसी ही है। कहीं-कहीं उसकी लिपि रोमन है लेकिन हिन्दी सर्वत्र नजर आती है। चीनी भाषा के बाद दूसरी भाषा हिन्दी नजर आती है, ऐसे आंकड़े कई विद्वान दे चुके हैं। अब तो अमेरिकी प्रशासन अपने यहां हिन्दी को सिखाना चाहता है।

आज हिन्दी चालीस करोड़ से कुछ ही कम की मातृभाषा कही जा सकती है। हिन्दी का दूसरा स्तर हिन्दी बोलनेवालों का है, जिनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं है। हिन्दी की व्याप्ति कितनी है इसका पता इसी बात से चल जाता है कि आप दक्षिणी प्रदेशों में जैसे केरल में हिन्दी को दूसरी भाषा की तरह बरता जाता देखते हैं। आंध्र, कर्नाटक में कन्नड़ के साथ हिन्दी मौजूद है।

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तमिलनाडु तक में अब हिन्दी का वैसा विरोध नहीं है जैसा कि सातवें दशक में हुआ था। अब तो तमिल सांसद हिन्दी सीखने की बात करने लगे हैं। मीडिया की मुख्य भाषा हिन्दी है। हिन्दी मीडिया अंगरेजी मीडिया से कहीं आगे है। राष्ट्रीय पाठक सर्वेक्षण में पहले पांच सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार हिन्दी के हैं। एक अंगरेजी का है, एक मलयालम का है, एक मराठी का और एक तेलुगु का है। एक बंगला का भी है। हिन्दी के सकल मीडिया की रीच इन तमाम भाषाई मीडिया से कई गुनी ज्यादा है। हिन्दी की स्वीकृति अब सर्वत्र है। ऐसा हिन्दी दिवसों के जरिए नहीं हुआ, न हिन्दी को राजभाषा घोषित करने से हुआ है। ऐसा इसलिए हुआ है कि हिन्दी जनता और मीडिया का नया रिश्ता बना है। यह बाजार ने बनाया है जिसे हिन्दी के विद्वान कोसते नहीं थकते।

मीडिया की हिन्दी संचार की जबर्दस्त हिन्दी है। इतिहास में इतने विकट, व्यापक एवं विविध स्तर के संचार की हिन्दी कभी नहीं रही। वह साहित्यिक हिन्दी रहकर संदेश, उपदेश और सुधार की भाषा भर बनी रही। प्रिंट मीडिया ने उसे एक विस्तार दिया, लेकिन साक्षरों के बीच ही। रेडियो, फिल्मों और टीवी ने उसे वहां पहुंचाया जहां हिन्दी का निरक्षर समाज रहता है, उसे एक नई भाषा दी है जो म्युजिकल है।

जिसमें एक से एक हिट गाने आते हैं जिन्हें सुनकर पैर थिरकने लगते हैं। हिन्दी टीवी के समाचारों से लेकर मनोरंजन की सबसे बड़ी भाषा है। वह इंटरनेट, मोबाइली चैट में आकर गिटपिट की भाषा बनी है। भले उसकी वर्तनी रोमन हो चली हो। वहां हिन्दी-अंगरेजी का नया निराला मिक्स मिलता है। रही कसर एफएम चैनलों की हिन्दी ने पूरी कर दी है। अब वह तेज गति से दौड़ती हुई फर्राटेदार मनोरंजक भाषा है जिसमें चुटकुले मजाक, मस्त बातें और संगीत बजता है।

इतनी बोली जाने वाली भाषा दूसरी नहीं है। इसका कारण हिन्दी का अपना लचीला स्वभाव है, उसमें दूसरी भाषाओं को समा लेने की अद्भुत क्षमता है। आज उसके कोश में मराठी, गुजराती, पंजाबी, उर्दू, तमिल, तेलुगू, कन्नाड़, मलयालम तक के शब्द मिक्स होकर आते-जाते हैं।

रीमिक्स की भाषा बनकर उसने सिद्ध कर दिया है कि स्पानी या लेटिनी या अंगरेजी भाषा के साथ उसकी कोई समस्या नहीं है। वे संग-संग चल सकती हैं। और यह सब हिन्दी भाषा को एक नई व्याप्ति देता है, जो अभूतपूर्व है। वह हिन्दी के एक नए जन सांस्कृतिक क्षेत्र को बताता है। जिसमें एक मिक्स करती हिन्दी रहती है, जो शुद्ध नहीं है और जो बात उसके लिए लाभ कर रही है। शुद्ध भाषा मरणासन्न हो जाती है। बहता नीर अगर भाषा है तो उसमें बहुत कुछ मिलता रहता है और बहाव उसे साफ करता रहता है, मैला नीचे बैठ जाता है और काम का साफ पानी ऊपर रह जाता है हिन्दी इस मानी में नई सफाई लेकर आई है।

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साहित्यकार किस्म के लोग इस हिन्दी का खाते हैं लेकिन इसको दूषित बताते हैं। कारण है उनका सोच अभी तक हिन्दी को किताबी और साहित्यिक मानता है जबकि कोई भी भाषा जनसंचार की भाषा बने बिना आगे नहीं बढ़ती। वह जितना विविध संचार करने में क्षमतावान होगी उतनी ही बढ़ेगी। उसमें तमाम लोग संवाद करें ऐसी भाषा आगे ही बढ़ेगी। हिन्दी इसीलिए आगे बढ़ी है और बढ़ रही है। इसके पीछे हिन्दी भाषी जनता की जरूरतों का बल है। हिन्दी जनता सबसे बड़ी उपभोक्ता जमात है। उसे संबोधित करने के लिए कॉर्पोरेट दुनिया विज्ञापन हिन्दी में पहले बनवाती है। यही हिन्दी की गुरुत्वाकर्षकता है।

वह कॉर्पोरेट के लिए आकर्षक और सबसे बड़ा बाजार देती है। कंपनियां उसमें संवाद करती हैं। ब्रांड करती हैं। इससे एक विनियम की नई हिन्दी बनी है। साहित्य भी मरा नहीं है, वह छोटी पत्रिकाओं में रह रहा है। वही उसकी जगह भी थी। साहित्यकार अब संख्या में ज्यादा हैं चाहे वे खराब हिन्दी ही लिखते हों। तब खतरे की लॉबी बनाना क्या तर्कसंगत है। हिन्दी दिवस मनाएं न मनाएं कम से कम इस पैरानॉइया से तो मुक्त हों जो हर वक्त हिन्दी पर खतरा मंडराता देखने का आदी है।

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