ताकि सचमुच राजकाज की भाषा बन सके हिन्दी

उमेश चतुर्वेदी
“अगर मेरे पास एक निरंकुश शासक की सत्ता हो, तो मैं विदेशी माध्यम के द्वारा हमारे लड़कों और लड़कियों की पढ़ाई आज ही रोक दूं और तमाम शिक्षकों और अध्यापकों से कह दूं कि अगर बर्खास्त न होना है तो इसे फौरन ही बदलें। मैं पाठ्यपुस्तकें तैयार होने की प्रतीक्षा नहीं करूंगा। वे इस परिवर्तन के बाद तैयार हो जाएंगीं। यह ऐसी बुराई है, जिसका इलाज एकदम हो जाना चाहिए।” एक सितंबर 1921 को यंग इंडिया में प्रकाशित गांधी जी ने अपने एक लेख में यह विचार व्यक्त किया था। आजाद भारत के सत्तर साल के इतिहास में जब भी राजकाज और नीति निर्माण में हिन्दी की स्थिति को लेकर चर्चा होती है, गांधी जी का लिखा यह लेख याद आ जाता है। गांधीजी के उस इंटरव्यू का वह अंश भी याद आ जाता है, जब उन्होंने आजादी के फौरन बाद बीबीसी के संवाददाता को दिया था। तब उन्होंने कहा था, पूरी दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता। 
 
आजाद भारत की कल्पना के सबसे बड़े पुरोधा की आजाद भारत की राजकाज और शैक्षिक माध्यम की भाषा को लेकर यह परिकल्पना थी तो तस्वीर दूसरी होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता और राष्ट्रभाषा को लेकर पिछली सदी के पचास के दशक के आखिर तक आते-आते हिन्दी खासकर तमिलनाडु राज्य के लिए बड़ा राजनीतिक सवाल बन गई। इतना बड़ा सवाल कि उसके खिलाफ दंगे तक हुए।

यह बात और है कि हिन्दी विरोधी आंदोलनों में शामिल रही तमिलनाडु की वह पीढ़ी अब बुजुर्ग हो चुकी है या हो रही है और नहीं चाहती कि उसकी भावी पीढ़ी हिन्दी ना जानने की वजह से अखिल भारतीय मौकों से चूक न जाए। अब वह पीढ़ी भी उस मर्म को समझने लगी है, जिसका पहली बार अंग्रेजों से भी ज्यादा गूढ़ अंग्रेजी जानने वाले ब्रह्म समाज के संस्थापक बंगलाभाषी केशवचंद्र सेन ने 1875 में जिक्र किया था। तब उन्होंने कहा था कि हिन्दी में ही वह ताकत है, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है। इसलिए अब तमिलनाडु में जिसे भी अखिल भारतीय मौकों की तलाश है, वह हिन्दी सीखने को तैयार है।

हिन्दी के विस्तार को लेकर हिन्दी फिल्मों के योगदान की चर्चा की जाती रही है। लेकिन हाल के दिनों में शिक्षा के बढ़ते कारोबार ने भी हिन्दी का विस्तार करने में बड़ा योगदान दिया है। हिन्दीभाषी राज्यों बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान या उत्तराखंड में अब भी अच्छे शैक्षिक संस्थानों की भारी कमी है। इसकी वजह से इन क्षेत्रों के छात्र भारी संख्या उन राज्यों की ओर जाने को मजबूर हुए हैं, जिन्होंने कभी हिन्दी का विरोध किया था। तमिलनाडु के शैक्षिक संस्थानों में हिन्दीभाषी क्षेत्रों के छात्र भारी संख्या में पहुंचे हैं और उनसे संपर्क के लिए अब स्थानीय लोगों को भी हिंदी सीखनी पड़ रही है। इस प्रक्रिया में आप हिन्दीभाषी क्षेत्रों की कमजोरी और ताकत दोनों को एक साथ देख सकते हैं।
 
लेकिन हिन्दी के विकास को लेकर राजकीय स्तर पर होने वाले प्रयासों ने खासा निराश किया है। अब यह दोहराने की जरूरत भी नहीं है कि हिन्दी अधिकारियों, राजभाषा अधिकारियों और हिन्दी के नाम पर चलने वाले विभागों ने हिन्दी के विकास में निराश ही किया है। हिन्दी और राजभाषा विभागों की पूरी प्रक्रिया में हिन्दी सिर्फ और सिर्फ अनुवाद की भाषा रह गई है। अनुवाद भी ऐसा, जिसमें सहजता की दूर-दूरतक गुंजाइश नहीं रही। चूंकि आजादी के सत्तर साल बीत चुके हैं, हिन्दी को राजकाज की भाषा के तौर पर संवैधानिक स्वीकृति मिले भी 68 साल हो गए, इसलिए अब इस विषय पर भी जरूर सोचा जाना चाहिए कि आखिर इन हिन्दी या राजभाषा अधिकारियों की क्या भूमिका रही। उन्होंने हिन्दी के विकास में कितना योगदान दिया। हिन्दी के नाम पर खाकर उन्होंने हिन्दी का भला किया या हिन्दी को और ज्यादा दुरूह बनाया। अगर उन्होंने हिन्दी को दुरूह बनाने में योगदान दिया है तो फिर उनकी भूमिका पर विचार किया ही जाना चाहिए। 
 
आधुनिक तुर्की के निर्माता कमाल पाशा ने 1924 में अपने देश को गणतंत्र घोषित करते हुए तुर्की भाषा में तत्काल काम करने का फरमान सुनाया था। आजादी के फौरन बाद भारतीय रहनुमा भी ऐसा कदम उठा सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा न करके संवैधानिक तरीका अख्तियार किया। उन्हें लगा कि ऐसा करके वे गैर हिन्दीभाषी इलाकों के लोगों में हिन्दी के प्रति स्वीकार्यता बढ़ाने में कामयाब होंगे। संसदीय राजभाषा समिति भी इसी योजना के तहत काम कर रही है। लेकिन यह कटु सत्य है कि संविधान निर्माताओं की सोच के मुताबित संवैधानिक कदमों से हिन्दी उतनी स्वीकार्य नहीं बनी, जितना बाजार, सामाजिक और राजनीतिक जरूरतों की वजह से हो पाई। इसके बावजूद संसदीय राजभाषा समिति अपने अध्ययनों के आधार पर रिपोर्ट देती रही। इसके बावजूद नीति निर्धारण में हिन्दी की भूमिका अब भी हाशिए वाली भाषा की ही बनी हुई है।

संसदीय समिति ने अपनी नौंवी रिपोर्ट में 110 से ज्यादा संस्तुतियां दी हैं। जिन्हें राष्ट्रपति ने इस साल स्वीकार किया और इस संबंध में 31 मार्च 2017 को सभी मंत्रालयों, विभागों और राज्य सरकारों को आदेश जारी किए जा चुके हैं। इस सिफारिश में हिन्दी की किताबें खरीदने, हिन्दी में काम करने जैसे कामों को तवज्जो देने या हिन्दी अधिकारियों को बेहतर वेतनमान देने की सिफारिशें हैं। जिन्हें स्वीकार करने में हिचक नहीं दिखाई गई है।
 
सवाल यह है कि हिन्दी की किताबों या पत्रिकाओं की सरकारी खरीद से उनकी गुणवत्ता, उनके लेखकों के स्तर पर क्या फर्क पड़ा है। इस पर भी विचार किया जाना जरूरी है। अव्वल तो होना यह चाहिए कि हिन्दी की राजकाज में दखल बढ़े। जब ऐसा होगा तो निश्चित तौर पर ना सिर्फ हिन्दी भाषा, बल्कि उसका व्यवहार करने वालों पर सकारात्मक और गंभीर प्रभाव पड़ेगा। ऐसा नहीं कि संसदीय राजभाषा समिति की रिपोर्ट में ऐसी गंभीर सिफारिशें नहीं हैं। लेकिन उन्हें सिरे से नामंजूर कर दिया गया है।

संसदीय समिति ने अपनी 46 वीं सिफारिश में सरकारी नौकरियों के लिए हिंदी के ज्ञान का न्यूनतम स्तर निर्धारित करने का सुझाव दिया है। इससे हिन्दी के प्रति ललक तो बढ़ती ही, हिन्दी प्रशिक्षित लोगों के दैनंदिन व्यवहार में उसका असर दिखता। इसी तरह 107 वीं सिफारिश भी हिन्दी को अधिकार संपन्न बनाने की दिशा में कारगर कदम साबित हो सकती थी। इस सिफारिश में समिति ने कहा है कि अंग्रेजी के उपयोग नहीं, प्रभुत्व को जड़ से खत्म करने की दिशा में उन पाठशालाओं को मान्यता देने की बाध्यता को खत्म कर दिया जाना चाहिए, जिसके तहत हिन्दी या मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा नहीं दे रही पाठशालाओं को मान्यता दी जाती है। इसी तरह समिति की 108 वीं सिफारिश पर भी ध्यान अपेक्षित है।

इस सिफारिश में कहा गया है कि केंद्रीय कार्यालयों में नौकरी के लिए हिन्दी की प्रतियोगिता पास करने की अनिवार्यता की जाए। इसी तरह समिति ने अपनी सिफारिश नंबर 110 में कहा है कि क और ख क्षेत्र के इलाकों के कार्यालयों में हिन्दी का प्रयोग ना करने पर दंड का विधान हो। यहां ध्यान देने योग्य है कि क और ख क्षेत्र पूरी तरह हिन्दी भाषी या उसके करीब हैं। हिन्दी की राजकीय स्थिति को बदलकर रख देने की क्षमता वाली ये चारों सिफारिशें नामंजूर कर दी गईं। 
 
राजभाषा समिति ने केंद्रीय कार्यालयों, सार्वजनिक क्षेत्र के निगमों-प्रतिष्ठानों आदि को निर्देश दिया है कि हर तीन महीने में हिन्दी की कार्यशाला जरूर आयोजित करें। इसका जमकर दुरूपयोग हो रहा है। केंद्रीय कार्यालय कार्यशाला के नाम पर किसी हिन्दी विशेषज्ञ को बुलाकर आधे घंटे का व्याख्यान करा देते हैं और चाय-समोसे के साथ कार्यशाला संपन्न हो जाती है। इस दौरान कायदे से हिन्दी के इस्तेमाल को लेकर आने वाली कठिनाइयों का अनुभवजन्य समाधान होना चाहिए। लेकिन रस्मी प्रक्रिया में इसे सिरे से नकारा जा रहा है। इसी तरह एक और मानक पर सवाल उठना चाहिए।

समिति के मानकों के मुताबिक अगर कोई अधिकारी पूरी फाइलिंग, टिप्पणी अंग्रेजी में भले ही करता हो, अगर वह हस्ताक्षर हिंदी में करता है तो वह राजभाषा का बेहतर काम माना जाता है। सवाल यह है कि संसदीय समिति की उचित सिफारिशों को स्वीकार नहीं किया जाता, समिति के आदेशों का उचित अनुपालन नहीं होता या हस्ताक्षर करने तक ही राजकाज को सीमित माना जाता रहेगा, हिन्दी का राजकाज की भाषा के तौर पर उचित स्थान हासिल करना दूर की कौड़ी ही रहेगा। 

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