तुम मुझमें जिंदा हो

पिता का अँगूठा

Webdunia
- निर्मला भुराड़िय ा
ND
एक इतालवी फिल्म है 'लाइफ इज ब्यूटीफु ल' । फिल्म एक पिता के महान त्याग और बलिदान की कहानी है। नाजी यातना शिविर में एक पिता अपने बच्चे के भोले मन को लगातार दुःख से कैसे बचाता है और कैसे अंततः उसकी प्राण रक्षा में स्वयं के प्राणों का उत्सर्ग भी कर देता है ।

दरअसल पिता के वात्सल्य की कहानियाँ बहुत कम बनती हैं। खासकर जब बात पिता और पुत्र के संबंध की हो तो। शायद इसलिए कि पिता और पुत्र के बीच का रिश्ता स्नेह संरक्षण के साथ ही अपेक्षा और उपेक्षा का भी होता है ।

पिता अपेक्षा करता ह ै, पुत्र उपेक्षा करता है। इससे एक किस्म का महीन तनाव दोनों के बीच हमेशा बना रहता है। हालाँकि जिंदगी के यातना शिविर से इतालवी फिल्म की तरह ही हर पिता अपने बेटे को बचाए रखने की जुगाड़ हर वक्त करता है। पर कई बार उसका बलिदान बेटा बहुत देर से पहचान पाता है ।

अक्सर त ब, जब वह भी पिता के रूप में अपने पुत्र के समक्ष उपस्थित होता है। पिता का स्नेह कई बार इसलिए भी दिखाई नहीं पड़ता कि जीवन की व्यावहारिकताओं से पुत्र को रूबरू करवाने की जिम्मेदारी भी उसकी होती है। पुत्र इसे पिता की कठोरता के रूप में देखता है। नारियल के खोल के भीतर छुपे नरम वात्सल्य को कई बार वह महूसस नहीं कर पाता।

पिता और पुत्र के बीच वात्सल्य आदि जैसे रस ही नहीं बहत े, एक और केमिकल वहाँ स्रावित होने लगता है। वह होता है अहं का कटुरस। हालाँकि संबंधी होने से यह अहं बढ़कर अहंकार या दंभ में परिवर्तित नहीं होत ा, परंतु वे एक-दूसरे में प्रतिस्पर्धी को देखने लग सकते हैं ।

यह कटुता अक्सर जीवन के साथ समाप्त हो जाती है। अकबर और उनके पुत्र जहाँगीर के बारे में कुछ प्रसंग पिछले दिनों पढ़ने में आए। जहाँगीर जिन्हें सलीम के नाम से जाना जाता था। सलीम अकबर के प्रति विद्रोही हो गया था। वे आगरा पर अधिकार चाहता था। इलाहाबाद जाकर उन्होंने अपने को सम्राट घोषित कर दिया और अपने नाम के सोने-चाँदी के सिक्के चला दिए।

अकबर ने उनसे मिलना चाहा तो सलीम ने कहा- इस शर्त पर मिलेंगे कि साथ में सलीम की सत्तर हजार की सेना भी हो। अकबर ने इस शर्त से इंकार कर दिया। बाद में किसी वक्त सलीम अकबर के दरबार में आया तो अकबर ने व्यंग्य किया कि तुम्हारे पास सत्तर हजार की सेना भी थी तो तुम अकेले क्यों आ ए? फिर उन्होंने सलीम के प्रति वात्सल्य दिखाय ा, मगर सलीम दंडवत करने को हुए तो थप्पड़ लगा दिया।

अकबर की मृत्यु के बहुत बाद लिखी अपनी आत्मकथा में जहाँगीर ने अकबर की बेहद तारीफ की। जहाँगीर ने लिख ा, ' अपनी चाल-ढाल में अब्बा साधारण नहीं जान पड़ते थ े, ऐसा लगता था खुदा का नूर ही सामने है ।' यही नही ं, रोजमर्रा के जीवन में भी जहाँगीर अकबर को अक्सर याद करता था ।

इतिहासकार लिखते है ं, एक बार जहाँगीर के पास काबुल से अनार और बदख्शां से खरबूज आए। फल बहुत ही उत्कृष्ट थे। उन्हें खाते हुए जहाँगीर ने पिता को याद किया 'उन्हें फलों का बहुत शौक था। ऐसे फल देखकर वे कितने खुश होत े?'

एक और दिलचस्प-सी बात होती है। मध्यवय का होते-होते अक्सर व्यक्ति चाहे-अनचाहे अपने पिता की तरह होने लगता है। पिता की अच्छाइयाँ तो ठीक कई बार उसमें ऐसे गुण भी परिलक्षित होने लगते है ं, जिन्हें वह अपने पिता में नापसंद करता रहा हो। उसके हाव-भा व, आदते ं, शरीर की मुद्रा आदि भी जानने वालों को उसके पिता की याद दिलाने लगती है ।

प्रकृति की क्लोनिंग अद्भुत है। पिता तो व्यक्ति के भीतर है। हमेशा जीवि त, मौजूद। शायर निदा फाजली बताते हैं कि उन्हें आराम कुर्सी पर बैठे-बैठे पैर का अँगूठा हिलाने की आदत पड़ गई। उन्होंने एक दिन गौर से सोचा कि ऐसा कौन करता थ ा? उन्हें याद आया कि उनके पिता भी फुरसत के क्षणों में आराम कुर्सी पर बैठकर अँगूठा हिलाया करते थे। इस बारे में निदा की एक बड़ी अच्छी कविता भी है ।

तुम्हारी कब्र पर मैं फातेहा पढ़ने नहीं आय ा,
मुझे मालूम था तुम मर नहीं सकत े,
तुम्हारी मौत की सच्ची खबर जिसने उड़ाई थी
वो झूठा था।

वो तुम कब थे
कोई सूखा हुआ पत्ता हवा से हिल के टूटा था।
मेरी आँखें तुम्हारे मंजरों में कैद हैं अब तक
मैं जो भी देखता हू ँ, सोचता हूँ वो वही है
जो तुम्हारी नेकनामी और बदनामी की दुनिया थी।

कहीं कुछ भी नहीं बदला
तुम्हारे हाथ मेरी उँगलियों में साँस लेते हैं
मैं लिखने के लिए जब भी कलम-कागज उठाता हूँ
तुम्हें बैठा हुआ मैं अपनी ही कुर्सी में पाता हूँ

बदन में मेरे जितना भी लहू है
वो तुम्हारी लग्जिशो ं, नाकामियों के साथ बहता है
मेरी आवाज में छुपकर तुम्हारा जहाँ रहता है
मेरी बीमारियों में तु म, मेरी लाचारियों में तुम

तुम्हारी कब्र पर जिसने तुम्हारा नाम लिखा है
वो झूठा है
तुम्हारी कब्र में मैं दफन हूँ
तुम मुझमें जिंदा ह ो,

कभी फुरसत मिले तो फातेहा पढ़ने चले आना।
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