अनुपम मिश्र : उनकी लेखनी से प्रेरणा के असंख्य दीप जले थे

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विलक्षण पर्यावरणविद् का यूं खामोश हो जाना 
 
 
गांधीवादी पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का यूं खामोश हो जाना बहुत खल रहा है। एक ऐसी शख्सियत जिसने अपना सर्वस्व समाज को दे दिया इस हद तक कि अनुपम मिश्र का अपना कोई घर ही नहीं था। वह गांधी शांति फाउंडेशन के परिसर में ही रहते थे। उन्होंने पर्यावरण के लिए आवाज तब उठाई थी जब पर्यावरण के लिए देश भर में कहीं कोई विभाग और संस्था ही नहीं थी। उनकी लेखनी ने ना सिर्फ अपने लिए पाठकों का विशेष वर्ग तैयार किया बल्कि पाठकों को समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में तराशने का काम भी किया।

बिना किसी बजट के मिश्र जी ने देश और दुनिया के पर्यावरण की जिस सूक्ष्मता से पड़ताल की वह करोड़ों-अरबों के बजट वाले विभागों और परियोजनाओं के लिए संभव नहीं हो सका। उन्होंने गांधी शांति प्रतिष्ठान में पर्यावरण कक्ष की स्थापना की थी। 
इस प्रतिष्ठान की पत्रिका गांधी मार्ग के संस्थापक और संपादक भी वही थे। उन्होंने बाढ़ के पानी के प्रबंधन और तालाबों द्वारा उसके संरक्षण की युक्ति के विकास का महत्वपूर्ण काम किया। उनकी कृति 'आज भी खरे हैं तालाब' का पहला संस्करण 1993 में छपा था।

पांचवां संस्करण 2004 में छपा और कुल प्रतियां 23000 छपीं। लेकिन 93 से 200 4 के बीच पुस्तक ने अपने-अपने क्षेत्र के जलस्रोतों को बचाने की ऐसी अलख जगाई कि ना जाने कितने गांव अपने पैरों पर खड़े हो गए और यह सिलसिला आज भी जारी है। देश में बेजोड़ सुंदर शीतल जलाशयों की कितनी विराट परंपरा थी, यह पुस्तक उसका भव्य दर्शन कराती है। तालाब बनाने की विधियों के साथ-साथ अनुपम जी ने उन गुमनाम नायकों को भी अंधेरे कोनों से ढूंढ निकाला जो विकास के नए पैमानों के कारण बिसरा दिए गए थे। ब्रेल सहित 13 भाषाओं में प्रकाशित हुई इस पुस्तक की 1 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं। 
 
पानी के लिए तरसते गुजरात के भुज के हीरा व्यापारियों ने इस पुस्तक से प्रभावित होकर अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण की मुहिम चलाई। पुस्तक से प्रेरणा पाकर पूरे सौराष्ट्र में ऐसी अनेक यात्राएं निकाली गईं। मध्यप्रदेश के सागर जिले के कलेक्टर श्री बी. आर. नायडू, को हिंदी ठीक से नहीं आती थी, पुस्तक पढ़ने के बाद इतना प्रभावित हुए कि जगह-जगह लोगों से कहते फिरे, 'अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा।'

श्री. नायडू की यह अलख सागर जिले के 1000 तालाबों को निरंजन कर गई।

ऐसी ही एक और अलख के कारण शिवपुरी जिले के लगभग 340 तालाबों की सुध ली गई। मध्यप्रदेश के ही सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की सौ-सौ प्रतियां बांटी थी। इसी त रह पंजाब, बंगाल और महाराष्ट्र के भी सैकड़ों किस्से मिल जाएंगे जहां इस पुस्तक ने बदलाव का बिगुल बजाया। यहां तक कि फ्रांस की एक लेखिका एनीमोंतो के हाथ जब यह पुस्तक लगी तो एनीमोंतो ने इसे दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए तड़पते लोगों के लिए उपयोगी समझा। उन्होंने इसका फ्रेंच अनुवाद किया। 
 
उन्होंने उत्तराखंड के चिपको आंदोलन में जंगलों को बचाने के लिये सहयोग किया था। वे राजेन्द्र सिंह के तरूण भारत संघ के लंबे समय तक अध्यक्ष रहे,2007-2008 में उन्हें मध्यप्रदेश सरकार के चंद्रशेखर आज़ाद राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें 2009 में उन्होंने टेड (टेक्नोलॉजी एंटरटेनमेंट एंड डिजाइन) द्वारा आयोजित सम्मेलन को संबोधित किया। 2011 में उन्हें देश के प्रतिष्ठित जमनालाल बजाज पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1996 में उन्हें देश के सर्वोच्च इंदिरा गांधी पर्यावरण पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। वे जयप्रकाश नारायण के साथ दस्यु उन्मूलन आंदोलन में भी सक्रिय रहे।
 
सुविख्यात कवि भवानी प्रसाद मिश्र की सुयोग्य संतान के रूप में अनुपम वाकई नाम के अनुरूप थे। मिश्र पिछले सालभर से कैंसर से पीड़ित थे। अनुपम जैसे विलक्षण समाजसेवी का जाना निश्चित रूप से दुखी और स्तब्ध कर देने वाला है। 1948 में वर्धा में जन्मे अनुपम की जीवटता ऐसी थी कि उनका होना समाज में एक आश्वस्ति थी  । उनकी लेखनी से प्रेरणा के असंख्य दीप जले थे... विनम्र श्रद्धांजलि।   
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