वास्तविक मुद्दे ही गायब हैं...

Webdunia
अवधेश कुमार
किसी विवेकशील व्यक्ति से पूछा जाए कि चुनाव का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष क्या होता है, तो उसका उत्तर होगा...मुद्दे और उम्मीदवार। अगर यह कहा जाए कि दोनों में से एक महत्वपूर्ण पहलू चुनना हो, तो पहला नाम मुद्दों का ही आएगा। वास्तव में चुनाव अपने आप अमूर्त है, उसे मूर्त एवं जीवंत मुद्दे और उम्मीदवार ही बनाते हैं। सामान्य अवस्था में मतदाता इन दो आधारों पर ही अपने मत का निर्धारण करते हैं। उम्मीदवारों का चयन राजनीतिक दल करते हैं तो मुद्दे भी वही उठाते हैं। लोगों के मन में कुछ प्रश्न होते हैं, उनके सामने राष्ट्रीय-स्थानीय परिस्थितियां होतीं हैं...। इसमें वे देखते हैं कि कौन-सा दल उनके मन के प्रश्नों को उठा रहा है और उसके हल का रास्ता भी दिखा रहा है।
वे यह भी देखते हैं कि जिन राष्ट्रीय-स्थानीय परिस्थितियों को वे देख रहे हैं उनकी अभिव्यक्ति कौन-सा दल और उम्मीदवार कर रहा है। एक स्वस्थ चुनाव प्रणाली और माहौल में जो उनके प्रश्नों और परिस्थितियों को सही तरीके से अभिव्यक्त करते तथा उसका हल निकालने की उम्मीद जगाते दिखते हैं, उन्हें वे अपना मत देते हैं। अगर चुनाव में ऐसा नहीं है तो फिर मान लीजिए वह स्वस्थ चुनाव प्रणाली नहीं है, और इसे चुनाव का उपयुक्त माहौल भी नहीं कह सकते। इन कसौटियों पर यदि पांच राज्यों में होने वाले चुनावों को कसें, तो निष्कर्ष क्या आएगा? क्या हम यह कह सकते हैं कि पांचों राज्य में जनता के सामने उपस्थित समस्त ज्वलंत प्रश्नों को पूरी तरह अभिव्यक्त किया जा रहा है? क्या हम यह कह सकते हैं कि वाकई जो मुद्दे होने चाहिए, वे चुनाव में जनता के बीच उठाए जा रहे हैं?
 
इनका उत्तर हां में देना जरा कठिन है। भारत विविधताओं वाला देश है, लेकिन हमारे पूर्वजों ने यहां विविधता में एकता के दर्शन किए। भारत नामक राष्ट्र-राज्य इसी एकता की ठोस और स्थिर अभिव्यक्ति है। चुनाव चाहे किसी राज्य में हो, वहां के स्थानीय मुद्दे अलग हो सकते हैं, किंतु भारत नामक राष्ट्र-राज्य का अंग होने के कारण राष्ट्रीय मुद्दे अवश्य होने चाहिए। पूर्वोत्तर के मणिपुर, पश्चिम के गोवा तथा उत्तर के उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड एवं पंजाब के चरित्र अलग-अलग हैं। किंतु हैं तो सब भारत के भाग ही। सभी राज्यों को मिलाकर यह देश बना है और सबकी समस्याएं और चुनौतियां हमारे देश की चुनौतियां हैं। भारत को वैसे भी वर्तमान विश्व ढांचे की एक उभरती हुई शक्ति माना जा रहा है, इसलिए भारत के प्रत्येक राज्य के एक-एक व्यक्ति की सोच उसके अनुसार निर्धारित होनी चाहिए। इस समय पहले राष्ट्रीय दृष्टि से सोचे तो चुनावों के मुख्य मुद्दे क्या-क्या होने चाहिए? हमारे देश की इस समय क्या चुनौतियां हैं? दुनिया में फिर एक बार आर्थिक मंदी का संकट मंडरा रहा है, इसके कारण कई प्रकार के तनाव और विश्व व्यवस्थ में जटिलताएं बढ़ने वाली हैं। आतंकवाद दुनिया की बड़ी चुनौती बनी हुई है और हमारे लिए यह दोहरी चुनौती है। 
 
अमेरिका में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रपं ने जिन कार्यकारी आदेशों पर हस्ताक्षर आरंभ किए हैं, उनसे विश्व व्यवस्था के अनेक स्तंभों को नकारने का भाव है। इसमें चुनाव का पहला मुद्दा तो यही होना चाहिए कि राज्यों में ऐसी कौन-सी सरकार होगी, जो इन सारी समस्याओं और चुनौतियों को समझते हुए आगे काम करे तथा जिससे देश को इनसे निपटने में सहायता मिले। आखिर कोई राज्य देश के सामने आने वाली इन समस्याओं और चुनौतियों से अलग कैसे रह सकता है। 
 
जरा सोचिए, कहीं आपको ये मुद्दे दिखाई दे रहे हैं? जिन पार्टियों के घोषणा पत्र आ गए हैं उनके पन्नों को पलट लीजिए आप हैरान रह जाएंगे कि उनमें इनका जिक्र तक नहीं है। घी, दूध पाउडर, प्रेशर कूकर.... देने के वायदों में मूल मुद्दे खो रहे हैं। आखिर मुद्दे तो राजनीतिक दल बनाते हैं। संसदीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों की भूमिका ही जनमत बनाने की होती है। मतदाता के सामने तो जो उम्मीदवार हैं उनमें से चुनने का विकल्प होता है। हमारे पास यह विकल्प तो है नहीं, कि हम मुद्दें दे और उसको जो पार्टी या उम्मीदवार स्वीकार करे, मत दें। तो सही मुद्दे तभी सामने आएंगे जब स्वयं राजनीतिक दल ही मूल्यों और मुद्दों की पटरी पर काम करें। सही मुद्दे तभी चुनाव प्रचारों पर आच्छादित होंगे, जब नेता मूल्यों, आदर्शों से आबद्ध राजनीति करें। 
 
यह स्थिति हमारे देश में अब है नहीं। वर्तमान चुनाव में जो दल सामने हैं, उनके बारे में कुछ बताने की आवश्यकता नहीं। जो राजनीतिक माहौल है उसमें कोई राजनीतिक दल या नेता इन मुद्दों उठा दें, तो भी तत्काल उससे अंतर नहीं आ सकता और ये चुनाव के मुख्य मुद्दे नहीं बन सकते। जब राजनीतिक दल उम्मीदवार तय करते समय विचार करते हैं कि इसे टिकट देंगे, तो किस-किस जाति या संप्रदाय का वोट मिलेगा और किस-किस का नहीं, जब वे यह देखते हैं कि इसकी गांठ चुनाव लड़ने लायक मजबूत है या नहीं, जब वे नेता यह सोचते हैं कि जीतने के बाद यह मेरे साथ हां में हां मिलाने वला रहेगा या नहीं...तो उसमें कोई एकाध नेता या दल महत्वपूर्ण मुद्दे उठा भी तो उससे क्या होगा।
 
अगर इन पांचों राज्यों में पार्टियों द्वारा घोषणा पत्रों में किए गए वायदों की फेहरिस्त बना लें, तो निष्कर्ष आएगा कि मुद्दों का मतलब है- लुभावने वायदे। कोई पार्टी जनता को यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि आपका भविष्य आपके अपने परिश्रम से संवरेगा और आप जो परिश्रम करेंगे उससे राज्य और देश का भविष्य सुधरेगा। यानी हमारा काम केवल आपके परिश्रम का सही फल आपको मिले, ऐसी शासन व्यवस्था देना तथा ऐसी नीतियां बनाना है। कोई शासन में आते ही एक महीने में पंजाब से मादक द्रव्यों को खत्म करने की बात कर रहा है, तो कोई कह रहा है जिस तरह हमने दिल्ली में पानी मुफ्त कर दिया, बिजली के दाम घटा दिए वैसे ही आपके यहां करेंगे...आदि आदि। जिन मुद्दों को उठाते हैं उनको भी विकृत करके। इससे उन पर स्वस्थ बहस तक नहीं हो सकती। उदाहरण के लिए आजाद भारत के इतिहास में नोट वापसी एक बड़ा निर्णय था। इसके परिणाम-दुष्परिणाम लंबे समय तक दिखेंगे। इसे मुद्दा सभी बना रहे हैं, पर जनता को कुछ समझ में नहीं आ रहा। उसे तो इस दौरान या अभी तक हो रही परेशानियों का अनुभव है। न तो केन्द्र में सत्तारुढ़ भाजपा तथ्यवार और सुव्यवस्थित तरीके से लोगों को समझा पा रही है और न विपक्ष इसकी वास्तविक कमियों को ही उजागर कर रहा है। इसका कारण क्या हो सकता है? राजनीति में अर्थव्यवस्था की समझ रखने वाले योग्य लोगों का अभाव या फिर ईमानदारी से सच बताने वालों का अभाव। इन दो के अलावा तीसरा कोई कारण हो ही नहीं सकता। 
 
नोट वापसी तो एक उदाहरण मात्र है। सही मुद्दे न उभरने के पीछे मूल कारण सही राजनीति और उपयुक्त राजनेता का हमारे राजनीतिक प्रतिष्ठान में अभाव हो जाना है। इसीलिए भटकी और दिग्भ्रमित राजनीति हमारे सामने जो मुद्दे होने चाहिए, वह नहीं उठातीं और जो नहीं होने चाहिए उठाती हैं। राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के अलावा क्षेत्रों की बात करें, तो पंजाब में हरित क्रांति के कारण अत्यधिक पानी एवं रासायनिक उर्वरकों ने किसानों को दुर्दशा का शिकार बना दिया। खेती महंगी हो गई और पैदावार घट गई। वहां मुद्दा तो यह होना चाहिए कि इस स्थिति को पलटा कैसे जाए। कैसे कम पानी और बिना रासायनिक उर्वरकों या कम रासायनिक उर्वरकों से खेती हो। कोई पार्टी इसे मुद्दा बना ही नहीं रही है। 
 
गोवा में उसकी सुंदरता को बनाए रखने के लिए शहरीकरण की प्रवृत्ति को रोकने तथा खनन को व्यवस्थित करना मुद्दा होना चाहिए। इसी तरह उत्तराखंड में पहाड़ों और नदियों का खनन तथा पलायन सबसे बड़ा मुद्दा होना चाहिए। मणिपुर में मुख्यमंत्री इबोबी सिंह को लगा कि वो चुनाव हार सकते हैं तो उन्होंने नए जिले बनाकर प्रदेश को हिंसा में झोंक दिया। मणिपुर हिंसा से कैसे उबरे, वहां नगा समुदाय के साथ कैसे मणिपुर की अन्य जातियां भाईचारे के साथ रहें यह मुख्य मुद्दा होना चाहिए। किंतु हो इसके उलटा रहा है। उत्तर प्रदेश में खेती को किसानों को प्राथमिकता देना, कम खर्च में खेती कैसे हो सकती है, वहां अपराध एवं सांप्रदायिकता पर काबू कैसे पाया जा सकता है...आदि वास्तविक मुद्दे हैं। अपराध और सांप्रदायिकता की बात हो भी रही है तो विकृत तरीके से। 
तो निष्कर्ष यही कि राजनीति यदि मूल्यों और मुद्दों से भटक कर यानी जन सेवा का माध्यम न रहकर सत्ता, शक्ति और साधन पाने का हथियार बन जाए तो फिर उसका हस्र यही होता है। इसमें असली मुद्दे सामने आते ही नहीं। यह स्थिति भयभीत करने वाली है। 
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