‘मधुशाला’ वो रचना जिसने हरिवंश राय बच्‍चन को साहित्‍य में किया ‘अमर’

Webdunia
मंगलवार, 18 जनवरी 2022 (12:20 IST)
(पुण्‍यतिथि‍ विशेष)
हिंदी साहित्य में हरिवंश राय बच्चन का विशेष स्थान है। उनकी सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में शामिल 'मधुशाला' ने हरिवंश राय बच्चन को न केवल हिन्दी साहित्य में अमर किया बल्कि पूरे विश्व में लोकप्र‍िय बनाया।


हरिवंश राय बच्चन का जन्‍म 27 नवम्बर 1907 को हुआ था। जबकि 18 जनवरी 2003 को उनका निधन हुआ था। वे हिन्दी भाषा के एक महत्‍वपूर्ण कवि और लेखक थे। बच्चन हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक माने जाते हैं।

बचपन में लोग उनको बच्चन कहते थे, जिसे बाद में वे अपने नाम के बाद में श्रीवास्तव की जग​ह लिखने लगे। वह हिन्दी में बच्चन नाम से ही रचनाएं लिखते थे। बच्चन का अर्थ होता है बच्चा।

उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया था। बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेजी के कवि डब्लयू बी यीट्स की कविताओं पर शोध कर पीएचडी की।

हरिवंश राय बच्चन भाषा के धनी थे। अंग्रेजी के प्राध्यापक होने के साथ ही हिन्दी, उर्दू, अरबी और अवधी भाषा का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था। उन्होंने कई वर्षों तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन किया। साथ ही वे इलाहाबाद आकाशवाणी में भी काम करते रहे।

बच्चन जी की कविताओं का उपयोग हिन्दी फिल्मों में भी किया गया। उनकी कविता अग्निपथ को 1990 में आई फिल्म अग्निपथ में में प्रयोग किया गया, जिसमें उनके बड़े बेटे अमिताभ बच्चन मुख्य भूमिका में थे।

बच्चन जी की ​कविता संग्रह दो चट्टानें 1965 में प्रकाशित हुई, जिसके लिए 1968 में हिन्दी कविता के साहित्य अकादमी पुरस्कार से उनको नवाजा गया। हिन्दी साहित्य में अविस्मरणीय योगदान के लिए हरिवंश राय बच्चन को 1976 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

उनकी रचना मधुशाला पूरी दुनिया में बेहद लोकप्रि‍य हुई। आइए पढते हैं इस रचना की कुछ बेहद लोकप्रि‍य पंक्‍तियां।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियां साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।
जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।
बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
'होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।
धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।
लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।
बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला'
'और लिये जा, और पीये जा', इसी मंत्र का जाप करे'
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।

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