व्यर्थ का ईसा-वीजा विवाद

Webdunia
राजकुमार कुम्भज
भारत द्वारा वर्ल्ड उइगर कांग्रेस (डब्ल्यूसी) के नेता डोल्कन ईसा का वीजा रद्द किए जाने से दक्षिण एशिया के दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंधों को मजबूती प्रदान करने में सहायता मिलने की संभावना व्यक्त की जा सकती है। भारत का यह फैसला आतंकवाद और अलगाववाद के खिलाफ लड़ाई में दोनों देशों के साझा विचारों को दर्शाता है। चीन डब्ल्यूसी नेताओं को अपने मुस्लिम बहुल अशांत प्रांत शिनजियांग में आतंकवाद समर्थक मानता है। 
 
चीन के इस आतंकवादी नेता डोल्कन ईसा को भारत ने कुछ समय पहले ही वीजा देने का फैसला एक ऐसे समय में किया था, जब उसके कुछ ही दिन पहले चीन ने पठानकोट हमले के मास्टरमाइंड मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र संघ से आतंकवादी घोषित कराने के प्रयासों में अड़ंगा लगा दिया था, लेकिन फिर हफ्तेभर बाद ही भारत ने सोच-समझकर ही चीन के इस विद्रोही नेता का वीजा रद्द कर देने का फैसला ले लिया। कहा जा सकता है कि इस मुद्दे पर यह भारत का यू-टर्न है, लेकिन खुशी की बात यह रही कि एक व्यर्थ का ईसा-वीजा विवाद जल्द ही खत्म भी हो गया।
 
चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेम्पररी इंटरनेशनल रिलेशंस में दक्षिण एशियाई मामलों के विशेषज्ञ फु शियाओकिआंग ने भारत के इस फैसले को सराहनीय बताते हुए स्वागत किया है, किंतु चीन के विदेश मंत्रालय की प्रतिक्रिया आना अभी शेष है जबकि भारतीय फैसले पर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर करते हुए डोल्कन ईसा ने कहा है कि 23 अप्रैल को भारत की तरफ से वीजा रद्द कर दिए जाने का जो छोटा-सा नोट उन्हें मिला है, उसमें और कुछ भी नहीं लिखा है।
 
चीन के इस विद्रोही नेता डोल्कन ईसा को आशंका है कि भारत ने यह फैसला, हो सकता है कि चीन के दबाव में आकर किया हो। इससे पहले चीन ने डोल्कन ईसा को वीजा दिए जाने की खबरों पर अपनी नाराजगी जताई थी। तब चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चुनर्यिंग ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि डोल्कन ईसा इंटरपोल और चीनी पुलिस के रेड कॉर्नर नोटिस में एक आतंकवादी है जिसे इंसाफ के कठघरे में लाना संबद्ध देशों का दायित्व है जबकि हकीकत यह है कि इंटरपोल की ओर से प्रकाशित वांछित लोगों की सूची में डोल्कन ईसा का नाम अभी कहीं भी नहीं है। 
 
इंटरपोल चार्टर के मुताबिक कहा गया है कि यदि अनुरोध करने वाले देश की इच्छा नहीं होती है तो इंटरपोल अपनी वेबसाइट पर वांछित व्यक्ति का नाम नहीं डालता है। ऐसे में पूछा जा सकता है कि तब डोल्कन ईसा को भारत द्वारा वीजा दिए जाने या न दिए जाने पर चीन की नाराजगी का क्या मतलब निकलता है?
 
चीन के असंतुष्ट उइगर कांग्रेस नेता डोल्कन ईसा का वीजा रद्द करने के संदर्भ में भारत का पक्ष यह है कि ईसा ने गलत श्रेणी में आवेदन किया था। केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू कहते हैं कि डोल्कन ईसा बतौर पर्यटक भारत आना चाहते थे, लेकिन वे एक सम्मेलन में शामिल होने वाले थे इसीलिए उनका वीजा रद्द करना पड़ा।
 
जाहिर है कि डोल्कन ईसा को पर्यटक वीजा की बजाय कांफ्रेंस वीजा के लिए आवेदन करना चाहिए था। ऐसी स्थिति में अगर ईसा भारत आते तो उन्हें गिरफ्तार करना ही पड़ता, क्योंकि ईसा के खिलाफ रेड कॉर्नर नोटिस लंबित है, लेकिन अपने राजनीतिक विरोधियों को क्या आतंकवादी भी ठहराया जा सकता है?
 
गौरतलब है कि वर्ल्ड उइगर कांग्रेस के नेता डोल्कन ईसा चीन के शिनजियांग के निवासी और तुर्की मूल के मुसलमान हैं, जो अपने प्रांत को 'पूर्वी तुर्किस्तान' कहते हैं और हाल-फिलहाल जर्मनी में रहते हैं। डोल्कन ईसा मानते हैं कि चीन ने उनके प्रांत पर जबरन कब्जा कर रखा है इसीलिए वे चीन से अलग होने की खातिर संघर्षरत हैं। 
 
इस संघर्ष में कई गुट शामिल हैं जिनमें से कुछ गुट हिंसक आंदोलन के समर्थक कहे जाते हैं, लेकिन डोल्कन ईसा जैसे लोग नितांत शांतिपूर्ण तरीकों से अपनी एक राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे है तो क्या इसीलिए डोल्कन ईसा चीन की आंखों में किरकिरी बने हुए हैं? तो क्या इसीलिए चीन उन्हें आतंकवादी मानता है? तो क्या इसीलिए दुनिया के तमाम देशों द्वारा भी डोल्कन ईसा को आतंकवादी मान लिया जाना चाहिए और चीन की हां में हां मिला लेना चाहिए? डोल्कन ईसा के बारे में चीन की ये कैसी राय रही है?
 
अपने पृथक व स्वतंत्र प्रांत तुर्किस्तान की मांग के लिए संघर्षरत डोल्कन ईसा हिमाचल प्रदेश स्थित धर्मशाला में 28 अप्रैल से 1 मई तक होने वाली कांफ्रेंस में हिस्सेदारी लेना चाहते थे जिसका आयोजन अमेरिका के 'सिटीजन पॉवर ऑफ चाइना' की ओर से किया गया था। 'सिटीजन पॉवर ऑफ चाइना' के प्रमुख वही यांग जियानली हैं, जो वर्ष 1989 के थ्यैनमन चौक पर हुए चीन-विरोधी प्रदर्शन में शामिल थे। 
 
उइगर नेता डोल्कन ईसा के बाद 2 और असंतुष्ट चीनी नेताओं को वीजा नहीं दिया गया है। 2 और असंतुष्ट चीनी नेता लु जिंगवा और रा वोंग भी डोल्कन ईसा की ही तरह हिमाचल प्रदेश स्थित धर्मशाला में दलाई लामा के बहुधर्मी सम्मेलन में हिस्सा लेना चाहते थे। लु जिंगवा भी डोल्कन ईसा की तरह ही थ्यैनमन चौक के चर्चित विद्रोह से जुड़ी रही हैं और अब अमेरिका में रहती हैं। रा वोंग हांगकांग स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, जबकि डोल्कन ईसा को जर्मनी में शरण मिली हुई है। 
 
तीनों आवेदनों को भारत के विदेश मंत्रालय ने खारिज कर देने की वजह तकनीकी किस्म की खामियां बताई हैं और चीन के दबाव से साफ-साफ तौर पर इंकार कर दिया है। भारत यह तो मानता है कि चीन ने अपने असंतुष्ट नेताओं को भारत में एक मंच पर मिलने का मौका उपलब्ध करवाने का विरोध किया था। 
 
संबंधित चीनी असंतुष्ट नेताओं के मामले में अमेरिका सहित पश्चिमी यूरोप के देश ज्यादा तबज्जो नहीं देते हैं, तब सवाल यही उठता है कि फिर भारत को इतना अधिक परेशान होने की क्या जरूरत है? क्या हम पूर्व में अपनाई गई अपनी विदेश नीति से थोड़ा इधर-उधर हो रहे हैं? क्या तिब्बत के सवाल पर भी हमारी नीतियां और स्थितियां बदल गई हैं? पूछा जा सकता है कि अब हमारी विदेश नीति में किन बातों पर जोर दिया जाने लगा है? क्या इसे सच मान लिया जाना चाहिए कि अब हमारी विदेश नीति सिर्फ व्यापार और पूंजी निवेश केंद्रित होकर रह गई है? किंतु यहां यह क्यों भुला दिया जाना चाहिए कि चीन की चिंताएं और प्राथमिकताएं सिर्फ व्यापार तक सीमित न रहकर कुछ और भी दिखाई देती हैं? जैसी कि उसने अजहर मसूद मामले में संयुक्त राष्ट्र के मंच पर जाहिर की है। वैसे भी देखा जाए तो चीन के असंतुष्ट नेताओं की तुलना अजहर मसूद जैसे आतंकवादी सरगना से कैसे की जा सकती है?
 
पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर पर आरोप है कि उसने गत 2 जनवरी को पठानकोट एयरबेस पर आतंकवादी हमला करवाया था। चीन ने मसूद अजहर मामले में संयुक्त राष्ट्र मंच पर भारत का साथ इसलिए नहीं दिया था; क्योंकि साथ देने से उसका सदाबहार मित्र देश पाकिस्तान नाराज हो जाता जिसने चीन को अनधिकृत जम्मू-कश्मीर इलाके से होकर 'चीन-पाक आर्थिक गलियारा' बनाने की एक ऐसी सुविधा दे रखी है जिससे कि चीन का सैन्य साजो-सामान सीधे-सीधे हिन्द महासागर में उतर सकता है। इसलिए चीनी दृष्टिकोण में मसूद अजहर का मामला बेहद मामूली-सा मामला था जिसकी सफलता से भारत को सिर्फ आत्मतुष्टि ही मिल सकती थी। किसी भी ठोस फायदे की उम्मीद करना बेकार की बात है। ऐसे में चीन को अकारण ही नाराज कर देना क्या अक्लमंदी और दूरदर्शिता कहीं जा सकती है?
 
पिछले कई दशकों से भारत-चीन सीमा विवाद में कोई खास नई उलझन नहीं आई है। कुछेक छुट-पुट घटनाओं को छोड़कर प्राय: भारत-चीन सीमा कमोबेश शांतिपूर्ण ही रही है। एक समय था जब चीन पूर्वोत्तर विद्रोहियों को सैन्य प्रशिक्षण और हथियार आदि से मदद किया करता था। कश्मीर समस्या पर भी उसका व्यवहार अमेरिका जैसा ही है कि भारत-पाक को द्विपक्षीय आधार पर बिना किसी मध्यस्थता के इसे सुलझाना चाहिए। 
 
भारत-चीन सीमा विवाद को चीन ने भारत से व्यापार और अन्य क्षेत्रों में संबंध मजबूत करने की प्रक्रिया के बीच बाधा नहीं बनने दिया है, किंतु डोल्कन ईसा व 2 अन्य असंतुष्ट चीनी नेताओं के वीजा प्रकरण से एक बार फिर ये जाहिर हुआ है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की विदेश नीति में चिंतन, चिंता और दृष्टि अथवा दूरदृष्टि का घनघोर अभाव है। शायद इसीलिए लगभग सभी पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों में तनाव देखा जा रहा है।
 
इसी संदर्भ में सवाल यह भी उठाया जा सकता है कि असंतुष्ट चीनी नेता डोल्कन को वीजा जारी ही क्यों किया गया? ई-वीजा जारी करने की स्वीकृति भारत का गृह मंत्रालय देता है, लेकिन यहां डोल्कन ईसा मामले में लाजमी और जरूरी था कि गृह मंत्रालय को विदेश मंत्रालय से और विदेश मंत्रालय को प्रधानमंत्री कार्यालय से परामर्श कर लेना चाहिए था, क्योंकि यह तमाम मामला भारत और चीन के राजनयिक संबंधों से जुड़ा मामला था।
 
जाहिर है कि ऐसी प्रक्रिया नहीं अपनाई गई जिससे साफ हो जाता है कि विदेश नीति के संदर्भ में गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय का आपस में कोई तालमेल ही दिखाई नहीं देता है जबकि इस समूचे मामले पर चीन ने न सिर्फ सार्वजनिक बयान दिया बल्कि गोपनीय राजनीतिक संपर्क के जरिए भारत को आगाह भी कर दिया था। 
 
डोल्कन ईसा को हफ्तेभर में पहले वीजा देकर वापस ले लेने का तमाम घटनाक्रम अगर भारत का यू-टर्न है तो भारत की चीन नीति भी अपरिपक्व और अस्पष्ट ही नजर आई है। बरसों की धैर्यपूर्ण कोशिशों के बाद भारत-चीन रिश्तों में दुतरफा सुधार देखा गया है। दोनों ही देशों की सीमाएं शांत हैं और भविष्य में भी शांत बनाए रखने की खातिर दोनों देशों ने कई सहयोग- संधि-समझौते किए हैं।
 
अगर भारत यू-टर्न नहीं लेता तो दोनों देशों के मध्य 1 मई को संपन्न होने वाली सैन्य अधिकारी स्तर की एक बहुत ही महत्वपूर्ण बैठक खटाई में पड़ जाती। असंतुष्ट चीनी नेता डोल्कन ईसा के वीजा प्रकरण में भारत द्वारा हफ्तेभर में ही जो यू-टर्न ले लिया गया, उसका त्वरित निष्कर्ष भी दोनों देशों के लिए उपलब्ध हो गया है। 1 मई अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस पर भारत और चीन के थलसेना अधिकारियों के लिए इस बात पर सहमति बन गई कि दोनों देशों की सरकारों ने जो संधि-समझौते किए हैं, उनका पूर्णतः पालन किया जाएगा।
 
संभवतः यह विस्मय का विषय हो सकता है कि दोनों देशों के वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास शांति कायम रखने पर भी सहमति बनी। सैन्य अधिकारियों की ये मुलाकातें विश्व मजदूर दिवस पर मोलडो में चीन की बीपीएम इकाई और पूर्वा लद्दाख के टीडब्लूडी गैरीसन में अलग-अलग संपन्न हुईं। 
 
इधर भारत में लेफ्टिनेंट कर्नल आरसी बर्थवाल तथा कर्नल सोंग झान ली और उधर चीन में मेजर जनरल सुधाकर तथा कर्नल झान पेंग झुंग ने एलएसी के पास शांति कायम रखने का जो इरादा जाहिर किया है, उससे दक्षिण एशिया में शांति प्रयासों को नई दिशा मिलेगी। 
 
माना कि चीन हाल-फिलहाल भारत-चीन सीमा विवाद सुलझाने में दिलचस्पी नहीं ले रहा है, लेकिन यह बात चीन से अधिक भारत के लिए महत्वपूर्ण और राहतभरी है कि दोनों देशों की सीमाएं शांत हैं। अच्छा ही हुआ कि एक व्यर्थ का ईसा-वीजा विवाद जल्द ही शांत हो गया।
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