प्रधानमंत्री की आक्रामकता का अर्थ

Webdunia
अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार जिस तरह से कालाधन के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं, चेतावनी दे रहे हैं, उनसे निस्संदेह संघर्ष के संकल्प का आभास मिलता है। हालांकि उसमें देश को नकदी रहित या कम नकदी के प्रयोग की ओर ले जाने का आह्वान भी करते हैं, लेकिन इसे भी कालाधन और भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष का ही अंग बनाकर पेश करते हैं।

 
प्रधानमंत्री ने वर्ष के अंतिम बार अपने मन की बात को एक प्रकार से पूरी तरह कालाधन रखने वालों के खिलाफ केंद्रि‍त कर दिया। इसी तरह एक दिन पहले पुणे एवं मुंबई के भाषणों में भी उन्होंने यही किया। हमने पहले भी भ्रष्टाचार के विरुद्ध नेताओं के भाषण सुने हैं, कारवाईयां भी देखी हैं, पर इसके पहले देश ने किसी प्रधानमंत्री के मुंह से इस तरह की आक्रामकता नहीं देखी। प्रधानमंत्री कालाधन रखने वालों और भ्रष्टाचारियों को खुलेआम चेतावनी दे रहे हैं कि आप बदल जाइए, जो कानून है उसका पालन कीजि‍ए, मुख्य धारा में आ जाइए और चैन की नींद सोइए, नहीं तो हमें आपके विरुद्ध कार्रवाई करनी ही होगी। इसी तरह मन की बात में उन्होंने जनता से कहा कि सरकार प्रतिबद्ध है और आपका सहयोग है तो लड़ना आसान है। मैं विश्वास दिलाता हूं कि यह पूर्णविराम नहीं है। रुकने या थकने का सवाल ही नहीं उठता।
 
अगर प्रधानमंत्री कहते हैं कि सरकार प्रतिबद्ध है, रुकने या थकने का सवाल नहीं है तो इसके अर्थ गंभीर होते हैं। इसका अर्थ होता है कि सरकार भ्रष्टाचारियों और कालाधन वालों को पकड़ने तथा सजा दिलवाने एवं ईमानदारी को प्रोत्साहित करने के लिए जितना कुछ संभव होगा, अवश्य करेगी। तो क्या कर सकती है सरकार? कुछ की तो उन्होंने चर्चा भी की। मसनल, जगह-जगह छापेमारी हो रही है। नए और पुराने नोट पकड़े जा रहे हैं, सोना पकड़ा जा रहा है, बेनामी संपत्तियों के कागजात पकड़े जा रहे हैं....। इस अभियान के बीच यह तो साफ हो गया है कि कालधन रखने वालों ने बैंकों के कुछ कर्मियों के साथ मिलकर अपने धन को सफेद करने की कोशिश की। प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में कहा भी कि वे तो गए ही, वैसे बैंककर्मियों को भी अपने साथ ले गए। यह वाक्य व्यंग्य में कहा गया था, लेकिन इसमें एक चेतावनी और कार्रवाई का संदेश भी निहित था। यानी इस तरह की गड़बड़ियां करने वालों को छोड़ा नहीं जाएगा। 
 
प्रधानमंत्री ने अपने मन की बात में तू डाल-डाल हम पात-पात कहावत का उल्लेख भी किया। मन की बात में प्रधानमंत्री ने लोगों के पत्रों की भी चर्चा की। अगर उनका कहना सच है तो फिर देश से भारी संख्या में इस अभियान को समर्थन मिल रहा है। उन्होंने कहा कि मुझे पत्र लिखकर लोग कहते हैं कि मोदी जी रूकना मत, भ्रष्टाचार को रोकने में जितने कड़े कदम उठाना पड़े उठाना। इसके द्वारा प्रधानमंत्री यही संदेश देना चाह रहे थे कि जब लोग हमारे साथ हैं तो हमें कार्रवाई करने में कोई समस्या नहीं है। इसका दूसरा अर्थ यह भी है कि लोग भ्रष्टाचारियों के खिलाफ हैं, कालाधन रखने वालों के खिलाफ हैं और कड़ी कार्रवाई चाहते हैं। जब लोग चाहते हैं तो सरकार को वैसा करना ही होगा। 
 
मन की बात सहित प्रधानमंत्री के ऐसे सारे भाषणों को एक साथ मिला दें तो इसका एक निष्कर्ष साफ है- सरकार ने भ्रष्टाचार के विरुद्ध जिस अभियान की शुरुआत कर दी है वह आगे बढ़ता रहेगा। प्रधानमंत्री कहते हैं कि देश भर में जो छापेमारी हो रही है वह सब आम जनता द्वारा दी गई जानकारियों के आधार पर हैं। यह हो सकता हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय में फोन से, ईमेल से, माई गवरमेंट वेबसाइट आदि पर लोग कुछ सूचनाएं देते हों कि फलां बैंक में गड़बड़ियां हो रहीं हैं। यह एक रणनीतिक बयान भी हो सकता है ताकि भय से कोई बैंककर्मी ऐसा न करे। यानी उसको यह विश्वास हो कि हम कुछ कर रहे हैं तो कोई न कोई किसी तरह प्रधानमंत्री तक यह बात पहुंचा देगा और मेरे खिलाफ कार्रवाई हो सकती है। जो भी हो हमें मानकर चलना होगा कि ऐसी छापामारी और धड़पकड़ की कार्रवाइयां आने वाले समय में भी हमें देखने को मिलेगी। वैसे भी प्रधानमंत्री ने इसके बाद बेनामी संपत्ति के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी साफ शब्दों में दे ही दिया। 
 
यह सच है कि 1988 के बेनामी सपंत्ति कानून में संशोधन कर सरकार ने इसे ज्यादा कड़ा बनाया। उसके तहत अगर कार्रवाई होगी तो फिर बेनामी संपत्ति वालों की खैर नहीं। लेकिन यह सब सुनने में जितना रोमांचक लगता है, आसान दिखता है उतना है नहीं। यह बात तो समझ में आती है कि लगातार कार्रवाई से एक भय पैदा होता है और इसके परिणामस्वरुप भी बहुत सारे लोग भ्रष्टाचार करने से बाज आते हैं। किंतु इतने बड़े देश में जहां भ्रष्टाचार एक बड़े वर्ग का स्वभाव बन चुका है, जहां इस वर्ग के लिए कालाधन ही सफेद धन का पर्याय हो गया हो, जहां घुसखोरी को अपने काम करने का पारिश्रमिक मानने की मानसिकता हो, वहां कालाधन, भ्रष्टाचार का खात्मा कठिन है। आखिर एक-एक आदमी की जांच कौन करेगा? केन्द्र सरकार की जो एजेंसियां हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। उनके पास सीमित कर्मचारी हैं और उनके जिम्मे दूसरे काम भी हैं। फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि जिन विभागों को कालाधन, भ्रष्टाचार सहित बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई कर उसे सरकारी खजाने में लाना तथा ऐसा करने वालों को कठघरे में खड़ा करने की जिम्मेवारी है, वे सत्य हरिश्चन्द्र के वंशज हैं यानी खांटी ईमानदार हैं? वे भी तो बेईमान हो सकते हैं। वे भी तो लेनदेन करके मामले को रफा-दफा कर सकते हैं। हो सकता है ऐसा हो भी रहा हो। प्रधानमंत्री को कहां से सारी सूचनाएं मिल जाएंगी और ऐसी कुछ सूचनाएं मिलतीं भी हैं तो जहां रक्षक ही भक्षक हो जाए वहां कोई क्या कर सकता है।
 
इसलिए प्रधानमंत्री के अंदर यदि वाकई भ्रष्टाचार को नष्ट करने इरादा है, यदि वे वाकई आगे बेनामी संपत्ति के विरुद्ध कार्रवाई करना चाहते हैं तो उसका समर्थन किया जाएगा, लेकिन यह विश्वास करना कठिन है कि केवल सरकारी स्तर की ऐसी कार्रवाइयों से इस लड़ाई में पूर्ण विजय मिल जाएगी। हम नहीं कहते कि इसका असर नहीं होगा। अवश्य होगा। कानूनी कार्रवाइयों का असर होता है लेकिन इसकी अपनी सीमाएं भी हैं। जहां तक नकदी की जगह गैर नकदी लेनदेन को बढ़ावा देने की बात है तो अगर देश के बड़े वर्ग की आदत में यह शुमार हो तो भ्रष्टाचार में कमी आएगी। सरकार इसके प्रचार-प्रसार के लिए जितना कुछ कर रही है उसका असर भी हो रहा है। स्वयं प्रधानमंत्री अपनी सभाओं में इसकी अपील कर रहे हैं, लोगों को समझा रहे हैं, मन की बात में भी उन्होंने इसकी विस्तृत चर्चा की, इन सबका असर नहीं होगा ऐसा नहीं है। बावजूद इन सबके, क्या हम यह कह सकते हैं कि सरकार के इन सारे अभियानों से भ्रष्टाचार नियंत्रित हो जाएगा, कालाधन पर मर्तांतक चोट पड़ेगी तथा बेनामी संपत्तियों के खोल तार-तार हो जाएंगे? विश्वास के साथ हां में इसका उत्तर देना कठिन है। 
 
वस्तुतः भ्रष्टाचार कानूनी से ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक समस्या बन चुकी है। जब तक समाज में स्वाभाविक रुप से ईमानदार रहने, देश के प्रति समर्पण, नैतिक और सदाचार व्यवहार के भाव का माहौल नहीं होगा कोई भी अभियान पूरी तरह सफल नहीं हो सकता। इसके लिए देश में सांस्कृतिक पुनर्जागरण की आवश्यकता है जिनसे हमको आपको झकझोड़ा जा सके, हमें भान कराया जा सके कि वाकई ऐसा करने वाले हम अपराधी हैं, पापी हैं...। सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण का ऐसा काम नहीं हो रहा है। वैसे कानून और व्यवस्था भी हमारे यहां राज्यों का विषय है। ऐसे कानूनी अभियानों की सफलता के लिए राज्यों का पूरा साथ चाहिए। अभी तक केन्द्र की कार्रवाइयों से अनेक राज्य सरोकार नहीं दिखा रहे हैं। इस स्थिति को भी बदलना होगा। प्रधानमंत्री यदि कानून के स्तर से जितनी सफलता मिल सकती है उसे पाना चाहते हैं तो फिर राज्यों को साथ लेने की बड़ी पहले करनी होगी। 
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