हम ही शनि हैं : स्वयं को पहचानें, प्रसन्न रहें

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डॉ. प्रकाश मोघे
पैसा और बस पैसा। परंतु सोचिए कि क्या पैसा कमाकर भी आप प्रसन्न हैं। प्रसन्नता आत्मिक अनुभूति है।जबकि खुशी क्षणिक, भीषण गर्मी में  शीतलपेय से खुशी मिलती है, परंतु कुछ समय के लिए। यदि शरीर स्वस्‍थ है और मन प्रसन्न तो यह प्रसन्नता चिरकाल होती है। 
 
पिछले कुछ एक दशकों पर नजर डालें तो स्पष्ट होता है कि हम निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर हैं। हमने उन्नति की है, परंतु उस समय जब हमारे पास  साधनों की उपलब्धता तुलनात्मक रूप से कम थी, हम प्रसन्न थे। परंतु आज समय के साथ होड़ के कारण कितना कुछ खोते जा रहे हैं? भौतिक  सुख-साधनों की भरपूरता के बावजूद प्रसन्नता हमसे कोसों दूर है। 
 
जीवन में प्रसन्न रहने के नुस्खे क्या हैं? 
आज भी ऐसे हजारों मिलेंगे जिनसे प्रसन्नता कोसों दूर है। प्रसन्नता, आनंद, आत्मिक अनुभूति है। जो लोग जीवन जीने की कला जानते हैं, वे तनाव से  दूर ही रहते हैं। छोटी-छोटी बातों में आनंद ढूंढ लेते हैं। बीमारी का मुख्य कारण है मानसिक थकान। व्यक्ति हमेशा जीता है दूसरों के लिए, अपने परिवार  के लिए, स्वयं के लिए उसके पास समय होता ही नहीं। जीवन में आनंद प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष प्रयास नहीं करने पड़ते। सर्वोत्तम साधन,  वाचन, अच्‍छी पुस्तकें पढ़ना, पढ़ने से चिंतन बढ़ता है और चिंतन से तार्किक शक्ति। एक छोटे शहर में रहकर दुनिया के संपर्क में रहना बुद्धिमानी का  परिचय है। ज्ञानी बनकर परिवार और समाज को सही दिशा दी जा सकती है। समूह चर्चा, जो वास्तव में आज के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक है, का प्रमुख  आधार वाचन है। एक अनुशासित जीवन की पहचान है वाचन। 
 
संगीत थकान मुक्ति और प्रसन्नता प्राप्त करने का अचूक नुस्‍खा है। बहुत कम लोग जानते हैं कि संगीत निरोगी रहने का असाधारण उपाय है। सांगीतिक  ध्वनियों से निकलने वाली आवृत्तियां जब शरीर से टकराती हैं तो शरीर के विभिन्न भागों पर उसका सकारात्मक प्रभाव होता है। मेडिकल साइंस ने इस  दिशा में आशातीत उन्नति की है। स्वस्थ रहना है, तनाव मुक्ति चाहते हो, आनंदित रहना चाहते हो, तो सरगम से दिल लगाओ।
 
इसके अतिरिक्त प्रात: घूमने जाना, बागवानी, खेल जैसे बैडमिंटन, रस्सी कूदना, योग, व्यायाम आदि प्रसन्नता के आधारभूत अंग हैं। दौड़भागभरी जिंदगी  का आवश्यक अंग हैं, परंतु जब शरीर स्वस्थ नहीं होगा तो चिड़चिड़ापन, नाराजी, अकेलापन आदि घातक रोग इस शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं।  आवश्यकता है रोजमर्रा की जिंदगी में से कुछ समय निकालकर प्रसन्नता प्राप्त करने के साधनों की। स्वस्थ मन, स्वस्थ शरीर। 
 
यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है, प्रत्येक व्यक्ति सिर्फ अपने समान होता है। ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति को, प्रत्येक जीव को विशेष गुणों से श्रृंगारित  किया है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी कारण में पारंगत होता है, परंतु हम आज इस बात से अ‍नभिज्ञ सदैव दूसरों से अपनी तुलना करते हैं।  महत्वाकांक्षा आवश्यक है, परंतु अति महत्वाकांक्षी व्यक्ति जीवन में सुखी होगा, कहना मुश्किल है। आज के इस प्रतिस्पर्धात्मक युग में प्रतिस्पर्धा  आवश्यक है, परंतु यह प्रतिस्पर्धा स्वयं के साथ होना चाहिए। स्वयं को इतना काबिल बनाओ कि अवसर स्वयं आपके सामने उपस्थित हों। आज की स्पर्धा  ईर्ष्यात्मक है। उसकी तनख्वाह मेरी तनख्वाह से अधिक क्यों है? दूसरा परिवार मुझसे अधिक संपन्न क्यों है? हम अपनी ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा दूसरों  को नीचा दिखाने में, दिखावा करने में या उनकी आलोचना में जाया कर देते हैं। हमें अपनी योग्यता और अपने गुणों के आधार पर स्वयं को जीवन युद्ध  के काबिल बनाना चाहिए। स्वयं को सम्मान देकर दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करना चाहिए। आप भी खुश रहिए, दूसरों को भी प्रसन्न रहने का  अवसर प्रदान कीजिए। स्वामी विवेकानंद अक्सर कहा करते थे कि सही बात लोगों को समझने में समय लगता है। इसका तात्पर्य यह कतई नहीं कि हमें  अपने श्रेष्ठ प्रयासों को सिर्फ इसलिए त्याग देना चाहिए, क्योंकि दूसरे उसे पसंद नहीं करते। प्रकृति का सर्वोत्तम संदेश विविधता में एकता है।
 
बुद्धिजीवियों का किसी भी बात पर एकमत होना लगभग असंभव है। सत्य तो यही है कि हमें अपने विचारों को आदान-प्रदान की पूर्ण स्वतंत्रता है। लोग  हमसे सहमत नहीं, इसका तात्पर्य यह नहीं कि आपकी उनसे जाति दुश्मनी है। पानी से आया भरा गिलास आशावादी लोगों को भरा दिखाई देता है,  जबकि निराशावादियों को वही गिलास आधा खाली दिखाई देता है अर्थात विचारों में भिन्नता से या तथ्‍यात्मक आकलन से सत्य को झुठलाया नहीं जा  सकता। इसलिए आलोचना किसी भी कार्य की श्रेष्ठता की दृष्टि एक समान होती या सभी के विचार एक समान होते, तो शायद यह दुनिया ऐसी नहीं  होती। अपनी बात को कहने के पश्चात हम में इतना सामर्थ्‍य होना चाहिए कि उसके स्वीकार होने पर अत्यधिक खुशी या अस्वीकार होने पर गम के  सागर में डूब न जाएं। अत: आम सहमति नहीं होने का तात्पर्य कतई यह नहीं है कि आप सही नहीं हैं। हां, उसके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए हमेशा। 
 
सिद्धांतहीन जीवन उस नाव के समान है, जो दिशाहीन होकर भटक जाती है। जीवन में कुछ मर्यादाएं, नियम और सिद्धांत होना चाहिए, परंतु ये  कानून-कायदे केवल स्वयं के लिए और दूसरों के लिए नहीं। यदि हमारे कारण दूसरों को तकलीफ होती है, तो यकीनन हमारे नियम, सिद्धांत, प्रैक्टिकल  नहीं हैं। हम में एक स्वाभाविक लचीलापन होना चाहिए। जीवन में पहले आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है, तत्पश्चात मानसिक स्वतंत्रता। प्रकृति में पानी हमें  यही संदेश देता है। रंगहीन होकर हर रंग में आनंदित, खुशहाल। जीवन में यह हम सिर्फ इतना कर पाए कि हमारे कारण दूसरों को कोई असुविधा न हो  तो हमारे आधे संताप समाप्त हो जाएंगे। सुख चाहिए तो दुख: मत दो। 
 
हमें वर्तमान में जीने की कला आना चाहिए। अतीत जो गुजर गया और भविष्य आने वाला कल अपने अतीत से संबंध गलतियों को सुधारने हेतु होना  चाहिए। सुनहरा भविष्य चाहिए तो उसकी नींव वर्तमान में रखिए। कुछ लोग जीवन में इसलिए प्रसन्न नहीं रहते कि अतीत से कुछ नहीं मिला। कर्महीन जीवन वर्तमान को खोखला बना देता है। फिर अच्‍छे भविष्य की कल्पना कैसे संभव है। स्वप्न साकार होंगे, वर्तमान का सम्मान करें। 
 
भौतिक साधनों की चकाचौंध में हमें अपनी आवश्यकताओं पर नियंत्रण रखना चाहिए। तुलनात्मक जीवन जीने वाले सहज ही कर्ज की चादर ओढ़ लेते हैं।  क्षणिक आनंद के लिए जीवनपर्यंत पछताना बुद्धिमानी नहीं हो सकती। मन पर नियंत्रण रखिए। बुद्धि का उपयोग कीजिए। विवेकशील बनिए और जीवन  का भरपूर आनंद उठाइए।
 
आत्मसम्मान और समझदारी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आत्मसम्मान का तात्पर्य अहं होना नहीं, परंतु जीवन में अनेक बार ऐसे प्रसंग आते हैं, जहां  परिस्थिति से समझौता समय की मांग होती है। भूल किससे नहीं होती? बहुत से घाव इसलिए हरे रहते हैं कि हम उन्हें सूखने नहीं देते। क्षमा करना और  क्षमा कर उसे भूल जाना मानसिक संताप, द्वेष, वैमनस्यता आदि ये आपको दूर रखता है। क्रोधित मन, मानसिक तनाव को सदैव बढ़ाता है। इसलिए  क्रोध पर नियंत्रण और समयानुसार निर्णय प्रसन्नता का प्रमुख आधार है। 
 
लचीली, सुंदर कोमल बेल में आंधी-तूफान में स्वयं को संभालने का सामर्थ्‍य होता है, वहीं दूसरी ओर अहंकारी पेड़ जमींदोज हो जाते हैं। व्यक्ति को  प्रैक्टिकल होना चाहिए। जीवन में क्रोध मूर्खता से प्रारंभ होता है और पश्चाताप पर समाप्त। 
 
जीवन में आशाओं का अपना एक महत्व होता है। यह कहना शायद ठीक हो कि जीवन-दर्शन की प्रथम सीढ़ी आशा ही होती है, क्योंकि आशाएं जीवन के  उद्देश्य की ऐसी लौ हैं जिससे हमारा जीवन सदैव प्रकाशित रहता है। दूसरों की कामयाबी पर प्रसन्नता व्यक्त करना वह भी आत्मिक, औपचारिक नहीं  स्वयं को प्रसन्न रखने की एक असाधारण कला है। महत्वाकांक्षा में हठ या जुनून लक्षित होता है, जबकि आशा भावना से ओतप्रोत। न्यूटन का नियम है  कि प्रत्येक क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है। प्रेम जीवन का मधु है। प्रेम यदि क्रिया है तो प्रतिक्रिया प्रेम ही होती। सम्मान प्राप्त करना है, तो दूसरों  का सम्मान कीजिए और जीवन में सदैव आनंद का अनुभव कीजिए।
 
सर्वसाधारण रूप से व्यक्ति के दो चेहरे होते हैं। एक जो ईश्वर प्रदत्त है, दूसरा जो व्यक्ति स्वयं बना लेता है। हमारी जिंदगी में दोहरापन देखा जा सकता  है। मंदिरों में देवियों की पूजा, जिसे हम शक्ति आराधना कहते हैं, करते हैं, वहीं वास्तविक जीवन में महिलाओं की दशा से समाज वाकिफ है। भ्रूण  परीक्षण, गर्भ में लड़कियों की हत्या जहां आम है, वहीं दुर्गाष्टमी और अन्य धार्मिक अनुष्ठानों में कन्याभोज का अपना महत्व होता है। यह बात समझ  से परे है कि बिना बीज पौधे की कल्पना कैसे की जा सकती है? संसार में जन्म देने वाली कोख ही नहीं होगी तो क्या पुरुष गर्भ धारण करेंगे? अशिक्षित  समाज की दोहरी मानसिकता ने हमें कहां जाकर खड़ा कर दिया है। हमें अपने घर का कचरा दूसरों के आंगन में फेंककर खुश होने के बजाए दूसरों की  सुख-सुविधा का ख्याल रखना चाहिए। 
 
परिवार सुनने में लगता अच्‍छा है, परंतु आज की इस भागदौड़भरी जिंदगी में माता-पिता के पास अपने बच्चों के लिए समय नहीं है। पारिवारिक सुख या  आनंद लगता है, कहीं छिप गया है। तनाव के कुछ एक कारणों में यह सबसे प्रमुख है। परिवार खुशहाल होगा, यदि बच्चों की भावनाओं को समझें।  बचपन एक उपहार होता है। बचपन का संबंध कोमल भावनाओं से होता है। आदतन समय निकालकर बच्चों के साथ समय व्यतीत करें, जीवन की  खुशियां द्वार पर खड़ी इंतजार कर रही हैं। 
 
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। संग्रह करना ठीक है, परंतु बांटने से जो खुशी मिलती है, उसका आनंद ही कुछ और है। बांटना है, तो मुस्कान, देना है,  तो ऐसी राय जिससे खुशी मिले, मदद आर्थिक हो या शारीरिक। इतिहास साक्षी है, मोहल्ले का आनंद प्लेट में नहीं मिल सकता। अकेलापन मानव मन  और मानव शरीर को शिथिल बनाता है। प्रसन्नता सामूहिक हो तो जीवन में आनंद ही आनंद होता है। कभी नजर दौड़ाइए, आप पाएंगे कितना कुछ है  मिल-बांटने के लिए। 
 
तात्पर्य यह है कि मनुष्य जीवनपर्यंत ग्रहों, नक्षत्रों, ज्योतिष और अध्यात्म के फेर में स्वयं को भूल जाता है। हम ही शनि हैं। हम ही राहू हैं। हम ही  मंगल हैं। जीवन की वास्वविकता को अस्वीकार कर इन बातों को नियंत्रित करने की चेष्टा करते हैं, जो असंभव है। ग्रहों की गति को बदलना और इस  प्रकार अपने जीवन में परिवर्तन लाने की कोरी कल्पना हमें हताशा के अंधेरे में ढकेल रही हैं। हम स्वयं अपने आप में संपूर्ण हैं, जो ब्रह्मांड में हैं, वहीं  हम में भी हैं। परंतु कहते हैं दीया तले अंधेरा। स्वयं को पहचानिए और बढ़ जाइए एक सुनहरे कल की ओर।
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