क्रिकेट, कलाकार और देश-प्रेम।

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अभिलेख द्विवेदी
जहां भावनाएं जागृत होती हैं, वहां जूनून भी अपनी मौजूदगी जरूर जताता है। और भारत में जहां सहनशीलता है वहीं आत्मीयता भी है। इसलिए हम भारतीय भावुक और जुनूनी होते है, शायद हमारे अंदर संवेदनाओं का भंडार होता है। यहां चाहे क्रिकेट की बात हो या सिनेमा की या किसी भी कला की, तो लोगों में भले एकता न मिले लेकिन जब बात देश-भक्ति से जुड़ी हो तो हर बच्चा अपने आप को सीमा पर तैनात सिपाही से कम नहीं आंकता। यही हमारे लिए एक गर्व की बात है।

 
ताज्जुब तब ज्यादा होता है, जब अपने ही देश के लोग चंद वजहों से अपने ही देशवाशियों के विरुद्ध बोलने लगते है या फिर ओछी प्रतिक्रिया देकर अपने ही देश में अखंडता का पर्दापण करते हैं। यह पहली बार नहीं है कि जब हमारे प्रधान मंत्री ने स्तिथि को जायज समझते हुए फैसला लिया और उसके अनुरूप कार्यवाही करने की अनुमति दी, लेकिन विडंबना यह है कि कभी किसी ने मानवाधिकार का झंडा लहरा दिया तो कभी किसी ने अनुचित कार्यवाही करार दे दी। यह हरकतें एक विश्व स्तर पर हमारी एकता पर चोट करती है और यही दर्शाती है कि हमें बांटना सरल है। अगर हम अपने ही देश की कार्य प्रणाली को कटघरे में खड़े करेंगे, वह भी ऐसे मुद्दे के लिए जिससे देश को नुक्सान कोई पडोसी ही पहुंचा रहा है, तो फिर विभाजित होने में वक्त कहां लगेगा। होना तो यह चाहिए कि जब सरकार पड़ोसी देश के खिलाफ कोई कदम उठाए तो हमें आगे आकर अपना भी समर्थन देना चाहिए। ऐसा ही बाहर के देशों में भी होता है। वहां एक अप्रिय घटना लोगों को एकजुट करती है और अपना रोष प्रकट करती है।
 
जब भी पाकिस्तान से सीमा पर तनाव होता है या तो हम क्रिकेट न खेलने की धमकी देते है या फिर शांति वार्ता में वक्त गंवा देते हैं। इस बार जब सरकार ने ठोस कदम उठाया, तो फिल्म जगत वालों ने पाकिस्तानी कलाकारों के समर्थन में कूद पड़े और यह सिर्फ निजी स्वार्थ की पहली पहचान है। क्रिकेटर्स को भी पाकिस्तान से खेलने में कोई समस्या नहीं है मनोरंजन जगत को भी कोई समस्या नहीं है तो फिर सीमा पर सिपाहियों की क्या जरूरत है? अगर कलाकार और खिलाड़ी उसी देश से है जो हमारे जवानों को मारते है, देश में आतंकवाद को थोपते हैं तो फिर उस देश के लोगों से क्यों इतना लगाव। वही खिलाड़ी या कलाकार क्यों नही कभी आतंकवाद या अपनी सेना और सरकार के खिलाफ बोलती है? रोजी-रोटी के लिए भारत की शरण चाहिए लेकिन जब उनके ही लोग भारत को नुकसान पहुंचाते हैं, तब वही सब अपने वतन लौट जाते हैं। इसका मतलब साफ है, कि वह कितने मतलबी और कैसे एकजुट हैं। हमारे यहां लोग बुद्धजीवी बन जाते हैं, सरकार और सेना पर सवाल करते हैं, उनके कलाकारों की पैरवी करते हैं। क्या हमारे देश में कला और काबि‍लियत की कमी हो गई है, जो हम अपने सबसे बड़े दुश्मन देश से निर्यात कर रहे हैं? क्या सेना के बलिदान का कोई महत्व नहीं है? जब वही कुछ फिल्मों को बैन करते हैं तब भी सब चुप रहते हैं, और हम उन्ही के धारावाहिक यहां निचोड़ते है। यह देश भक्ति है या व्यवसाय प्रेम है? क्या अपने व्यवसाय/पेशे के आगे देश का हित या लोगों का जरा भी ख्याल नहीं आता? 
 
बहुत आसान है सीमा पर बिना गए स्टूडियो में बैठ कर अमन चैन का राग आलापना, लेकिन कभी उनके बारे में सोच कर भी देखना चाहिए की लड़ते वक्त जिन्होंने जान गंवायी है वह भी अपने ही भाई थे। पड़ोसियों की तरफदारी से पहले हमें अपने घर का हाल देखना चाहिए। जब 18 जवान शहीद हुए तब सब सरकार को नपुंसक बता रहे थे, और जब सेना ने अपना कर्तव्य निभाया तो आत्मीयता जाग गयी। यह दोहरा व्यवहार अपने ही देशवासियों से कर के क्या मिलेगा? जितना इस देश में प्यार, इज्जत और अपनापन मिलता है वह किसी और देश में कत्तई नहीं मिलने वाला, तो फिर बाहर की लालसा में क्यूं अपनों का गला घोंट रहे हो? अगर आज सभी खिलाड़ी, कलाकार पकिस्तान के विरूद्ध खड़े हो जाएं, तो बिना युद्ध के हम उनको भूखों मरने पर मजबूर कर सकते है। हमें एकजुट रहना है न कि किसी धोखेबाज़ पडोसी के चंद मेहमानों की खातिरदारी करनी चाहिए।
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