सेरोगेसी को लेकर कानूनी अड़चन

Webdunia
सिद्धार्थ झा
आज ज्ञान विज्ञान निरंतर तरक्की कर रहा है। कुछ समय तक पूर्व जिसकी कल्पना मुम्कि‍न नहीं थी, विज्ञान ने वह संभव कर दिखाया है। सेरोगेसी भी उसी खोज की एक महत्वपुर्ण कड़ी है। बांझपन लाइलाज था, सिर्फ गोद लेना ही एकमात्र उपाय था। कमी चाहे पुरुष में हो या महिला में, महिलाओं को ही जमाने भर के ताने और उलाहने सुनने पड़ते थे। या तो वे यह सब सुनती रहतीं, साधू बाबाओं के चक्कर लगाती या फिर अनैतिक संबंधों की तरफ ना चाहते हुए भी कदम बढ़ातीं।अब तस्वीर का एक और पहलु भी देखिए, अगर आपको बच्चों की लालसा है तो आपके सामने शादी ही एकमात्र उपाय है। यानी बिना शादी के आप बच्चे पैदा नहीं कर सकतीं।
इस बीच भारत में ऐसा धनाढ्य वर्ग भी पैदा हुआ जिसके पास पैसे तो बहुत हैं लेकिन बच्चे पैदा करने की तकलीफ से बचना चाहते हैं। सेरोगेसी ने इन सब को अंधेरे में रौशनी की किरण दिखाई। लेकिन समाज के कुछ नैतिक ठेकेदारों को ये बात रास नहीं आ रही थी कि आखिर नानी, नाती को क्यों जन्म दे रही है? इसके अलावा कुछ एक ऐसे मामले भी आए जब दंपत्ति ने बच्चे को किसी कारणवश अपनाया नहीं या फिर उतने पैसे नहीं दिए जितने तय हुए। सेरोगेसी में बड़ी संख्या में महिलाओं ने अंडाणु दान दिए, कोख भी दी। लोगों ने इसे किराए की कोख कह कर संबोधित किया। इस भेड़चाल और हो हल्ला के बीच केबिनेट ने सेरोगेसी पर कानून बना दिया, जिसमें बहुत से किंतु-परंतु और नियम बने हैं यानी अब सेरोगेसी इतना आसान नहीं होगी।
 
आखिर इतने सख्त कानून की क्या जरुरत थी? यह बात मेरी तरह बहुतों के समझ से बाहर है। एक वक्त, जब शुक्राणु दान करने की खबरें आई थीं, तब भी बेवजह तिल का ताड़ बनाने की काफी कोशिशें हुई, लेकिन सुखद पहलु यह रहा कि एक अच्छी बहस की शुरुआत हुई और विकी डोनर जैसी फिल्मों ने इसका सकरात्मक पक्ष समाज के सामने रखा। अब तक सेरोगेसी की भारतीय समाज में धीरे-धीरे स्वीकार्यता बढ़ रही थी, लेकिन थोड़ा महंगा था इसलिए वैसे वाले धनाड्य, अनिवासी भारतीय, विदेशी और कुछ फि‍ल्मी सितारों ने इसका फायदा उठाया। अमूमन इसका खर्च 5 लाख के आसपास आता है, जिसमें इसका एक हिस्से का फायदा उस महिला को भी मिलता है, जिसके भ्रूण में अंडे निषेचित होते हैं, कृतिम वृद्धि से।
 
इसका एक पहलु यह भी है, कई बार रिश्तेदार तो बहोत बार किसी जरूरतमंद महिला की भी मदद ली जाती है। यानी दो पार्टी हैं, एक वो जो बेऔलाद है,  जिन्हें बस तकनीक में मदद के लिए किसी की सहायता की जरूरत है, दूसरा वो जिनकी पैसों की खातिर ऐसा करना मजबूरी है। यानी नुकसान में कोई निजी है क्योंकि इसमें सौदा बाजार के मानकों के अनुरूप हुआ है। मेरी जमीन है, मैं उस पर खुद के लिए खेती करता हूं या बंटाई पर देता हूं, मेरी मर्जी है। क्योंकि मेरा स्वामित्व है, इसमें कहीं कोई नैतिकता की गुंजाइश नहीं है। इसी तरह शरीर भी हमारा है, हम उसकी देखरेझ करते हैं इससे बड़ी सम्पति मेरी नहीं हो सकती। और यह भी स्पष्ट है, मुझसे ज्यादा अच्छी देखभाल या अच्छा बुरा भी कोई नहीं सोच सकता। अगर एक निश्चित लाभ के लिए कोई अपनी कोख किराए पर देता है, उस पर सरकार की दखलअंदाजी कहां तक जायज है? हो सकता है सेरोगेसी के दौरान कुछ एक गिनी चुनी मौतों या होने वाली संतान को दंपति द्वारा इंकार की घटनाओं से सरकार की तंद्रा टूटी हो और उसे अपने कर्तव्य का बोध हुआ हो। लेकिन इतने भारी-भरकम कानून के सहारे, इस विधि को इतना संकरा बनाने की क्या जरूरत थी? मसलन अविवाहित, समलैंगिक, विदेशी या अनिवासी भारतीय यहां इसका लाभ नही लें सकते। बजाए इसके, सरकार यह करती कि होने वाले बच्चे या कोख किराए पर देने वाली मां के कानूनी हितों की रक्षा के लिए एक नियामक या निगरानी एजेंसी बनाती सरकार ने इस विधि को और जटिल कर दिया, जो सिर्फ भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा। इंस्पेक्टर राज को बढ़ावा देगा। दूसरी बात, सरकार किस-किस के भ्रूण को किस तरह से सुनिश्चित करती फिरेगी, कि किसका है यह? अब तक जो काम काम राशि में खुलेआम होता था, अब उससे तिगुनी से ज्यादा राशि में चोरी-छिपे होगा, गैरकानूनी तरह से होगा, जिसमें जच्चा-बच्चा दोनों की जान जा सकती है। चूंकि यह गैरकानूनी मौते होंगी, इसलिए इसकी रिपोर्ट भी दर्ज नहीं हो पाएगी।
 
कुछ समय पहले तक किडनी ट्रांसप्लांट बहुत आसान था, डोनर मिल जाते थे। लेकिन अब किडनी का मरीज जिंदगीभर डायलिसिस पर जीने को मजबूर है क्योंकि रिश्तेदार उसको किडनी देते नहीं और कोई बाहरी व्यक्ति बिना लाभ के देगा नहीं। उस आदमी के पास पैसा है, फिर भी तिल-तिल करके मरने को मजबूर है। दूसरी तरफ ऐसे करोड़ों लोग हैं, जो पैसों के अभाव में रोज जीवन मरण के प्रश्न से गुजरते हैं। और वे जानते हैं कि एक किडनी दे देने से ना सिर्फ सामने वाले की जान बचेगी, बल्कि उसकी भी बाख जाएगी और जीवित रहने के लिए मात्र एक किडनी की जरूरत होती है। सरकार ने सख्त कानून बनाया, नतीजा अवैध किडनी का बाजार गर्म हो गया। आज एक किडनी का सौदा 20 लाख तक में होता है, लेकिन डोनर तक बहुत मामूली राशि पहुंचती है। उसपर से क्वालिटी से होने वाले समझौते के कारण ज्यादातर ऑपरेशन असफल भी रहते हैं। हर साल देश में डेढ़ लाख से ज्यादा किडनी के मरीज तेजी से बढ़ रहे हैं, जो सरकार के इस बेवजह के कानून से मौत का शिकार हो रहे हैं। ऐसे ही कुछ हालात सरोगेसी कानून की वजह से पैदा होने की आशंका है। सरकार का फर्ज है कि किसी के साथ अन्याय न हो यह देखना, ना कि परेशानी पैदा करना या अवैध व्यापार को बढ़ावा देना। इसलिए जरूरी है कि सेरोगेसी कानून में बदलाव लाया जा सके, जिससे की किसी को असुविधा का सामना न करना पड़े।
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