पत्रकारिता की त्रिवेणी

अज्ञेय, माथुर और जोशी

Webdunia
अशोक वाजपेयी
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अज्ञेय, राजेंद्र माथुर और मनोहर श्याम जोशी भारतीय पत्रकारिता की वह त्रयी है जिसने भारतीय हिंदी पत्रकारिता को दृढ़ता से स्थापित किया और इसे गरिमा प्रदान की। ये भाषा, विचार और संस्कृति के प्रति अपनी जिम्मेदारी अनिवार्य मानते थे। इनमें अज्ञेय और जोशी मूलतः पत्रकार नहीं साहित्यकार थे, वे जीविका के लिए पत्रकार बने।

ये दोनों जीवन के अधिकांश समय में पत्रकारिता से जुड़े नहीं भी रहे। हाँ, राजेंद्र माथुर मूलतः पत्रकार थे पर तीनों में एक बात समान थी - तीनों अपनी भाषा हिंदी की सर्जनात्मकता और बुद्धि में पक्का भरोसा करते थे। अज्ञेय और राजेंद्र माथुर ने संपादक के रूप में - सर्जनात्मकता के जो दूसरे क्षेत्र हैं - जैसे साहित्य, रंगमंच, संगीत और कला आदि सबको जरूरी माना और उन्हें अपने पत्रों में जगह भी दी। मार्के की बात यह है कि इन दोनों का भरोसा गंभीर को लोकप्रिय बनाने में था जबकि जोशी जी का आग्रह यह था कि लोकप्रिय को गंभीरता से लिया जाए।

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' दिनमान' को अज्ञेय जी की पत्रकारिता का उत्कर्ष माना जा सकता है। समाचार, विश्लेषण और कला किसी भी आयाम से देखें तो 'दिनमान' हिंदी की सर्वोत्तम पत्रिका मानी जा सकती है। अज्ञेय ने अपने समय के सारे बड़े लेखकों को 'दिनमान' से जोड़ा। रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा और प्रयाग शुक्ल जैसे साहित्यकारों को उन्होंने इससे जोड़ा। ऐसा उनसे न पहले हुआ न बाद में। 'दिनमान' हिंदी पत्रकारिता की एक अद्वितीय परिघटना है। अब ऐसी कोई पत्रिका नहीं है जिसके कारण लेखकों की कृतियाँ बनती-बिगड़ती हों।

वहीं राजेंद्र माथुर जी का राजनीतिक विश्लेषण उस वक्त की मान्यता का प्रतिख्यान था कि ऐसा गंभीर विश्लेषण अंग्रेजी में ही संभव है। कभी-कभी तो उनकी टिप्पणियों का अंग्रेजी अनुवाद भी छपता था। तीनों अपने व्यवहार और दृष्टियों में बहुत ही लोकतांत्रिक थे। तीनों ने अपनी निजी दृष्टियों से असहमत दृष्टियों को भी जगह देने में कोई चूक नहीं की।

साथ ही अज्ञेय और माथुर ने अपने समय में जिस प्रकार की हिंदी का प्रयोग किया वह मानक भाषा की तरह याद की जा सकती है। बाद की पत्रकारिता ने न तो इन मूर्धन्यों की भाषा का, न उनकी व्यापक चिंताओं का और न उनकी लोकतांत्रिकता का उत्तराधिकार ग्रहण किया। आजकल की हिंदी पत्रकारिता को याद ही नहीं कि एक वक्त में ऐसी उत्कृष्ट पत्रकारिता हो चुकी है। आज की पत्रकारिता की भाषा अटपटी, गैरमुहावरेदार और भ्रष्ट हो चुकी है।

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