पत्रकारिता, भाषा को भ्रष्ट कर रही है

साहित्य से परहेज करती नई पत्रकारिता

Webdunia
राजेंद्र यादव
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अज्ञेय, राजेंद्र माथुर, मनोहर श्याम जोशी, रघुवीर सहाय या और ऐसे लोग, राजेंद्र माथुर को छोड़कर, रचनात्मक लेखक थे। एक लेखक के तौर पर इनमें से हरेक की अपनी अलग पहचान थी। राजेंद्र माथुर रचनात्मक लेखक नहीं थे लेकिन उनके पीछे भी अंग्रेजी और हिंदी साहित्य की गहरी पृष्ठभूमि थी। इन लोगों के लिए समाचार पत्र प्रकाशित-संपादित करना सिर्फ एक प्रोफेशन नहीं था।

ये अपने विचार भी देना चाहते थे। अपने विचारों के साथ ही समाचारों को भी देखते थे तो उनके बनाए हुए समाचार या उनके दिशा-निर्देशों में बनाए गए समाचारों में विचारों की गंध होती थी, विश्लेषण होता था, पूरे समाज की समझ होती थी। वे खाली कटे-छँटे समाचार नहीं होते थे कि सिर्फ एक घटना है और उसे दे दिया, ऐसा नहीं होता था। और इस मामले में मैं समझता हूँ कि सबसे प्रोफेशनल एटीट्यूड राजेंद्र माथुर का था, हालाँकि इस मामले में अज्ञेय भी बेहद योग्य और कुशल संपादक थे। उन्होंने भी, जब वे 'नवभारत टाइम्स' के संपादक हुए तो उसे एक नया तेवर दिया, नई तरह की पत्रकारिता दी और संयोग से उसके बाद ही राजेंद्र माथुर आ गए।

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उन दिनों 'नवभारत टाइम्स' अपने समय का बहुत महत्वपूर्ण अखबार बन गया था। उन दिनों एक स्वस्थ टक्कर-सी बन गई थी, 'नवभारत टाइम्स' और 'जनसत्ता' के बीच, क्योंकि दोनों के ही संपादक राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी नईदुनिया से आए थे तो लगभग दोनों में एक खास तरह की प्रतिस्पर्द्धा थी कि कौन हिंदी पाठकों को ज्यादा से ज्यादा अपने साथ जोड़े, वह भी बिना समझौता किए हुए। नतीजा यह हुआ कि दोनों ही अखबार बेहद पठनीय हो गए।

उनको न पढ़ना एक तरह से कहना चाहिए कि अशिक्षित रह जाना था। दोनों ही लोगों ने बहुत अच्छी टीम बनाई। उत्साही नौजवानों की टीम की सहायता से एक समय 'जनसत्ता' की साढ़े तीन लाख प्रतियाँ छपने लगी थीं। ऐसी स्थिति आज की पत्रकारिता में दिखाई नहीं पड़ रहा। आज ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जिसकी स्वतंत्र रूप में लेखक के तौर पर प्रतिष्ठा हो।

एक वक्त में मृणाल पांडेय थीं, लेकिन उन्होंने प्रशासनिक व्यवस्थाओं में कुछ इस कदर फँस गईं कि वह पत्रकारिता को अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दे पाईं। और आज जितने संपादक हैं वे वही हैं जो पत्रकारिता के माध्यम से आगे बढ़े हैं। और आज की पत्रकारिता में कहा जाता है कि यदि पाठकों को पकड़ना है तो विचारों से दूर रहो, साहित्य से दूर रहो। इनकी कोई साहित्यिक पृष्ठभूमि नहीं है। छोटे-से-छोटे अंग्रेजी अखबारों में सप्ताह में एक दिन साहित्य का, किताबों का पन्ना जरूर होता है। हमारे यहाँ ऐसा अनिवार्य नहीं है। जहाँ किताबें या उनकी समीक्षाएँ हैं भी वहाँ बेहद उदासीन भाव से।

एक और बड़ी कमी यह है कि हिंदी ने अपने कॉलम लेखक विकसित नहीं किए हैं। आज भी यहाँ लेखक अंग्रेजी कॉलम लेखकों की नकल करते हैं या उनके अनुवाद छापते हैं। होना यह चाहिए था कि उनके अपने कॉलम लेखक और अपने विशेषज्ञ होते और वह पत्र को एक सहारा देते। तो मैं यह महसूस करता हूँ कि हिंदी फिल्मों की तरह ही हिंदी पत्रकारिता में भी साहित्य लगभग बहिष्कृत है।

एक तरह से देशनिकाला सा दिया हुआ है। जिस तरह फिल्में साहित्य से कुछ नहीं लेते और यदि लेना ही होता है तो अंग्रेजी फिल्मों से लेते हैं। उनमें यह विश्वास ही नहीं है कि हिंदी साहित्य से कोई चीज लेकर, उसे विकसित कर वह अच्छी चीज बना सकते हैं।

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