मकबूल : बिदाई... रंग, कला और विवाद के सम्राट की

Webdunia
गुरुवार, 9 जून 2011 (20:37 IST)
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स्मृति जोशी

मकबूल फिदा हुसैन नहीं रहे। एक ऐसा शख्स जिनके ब्रश से चर्चा के रंग बिखरते थे, जिनकी रची आकृतियों में विवाद के रंग ही सजते थे। वे कला की वजह से मकबूल तो बहुत हुए मगर ना जाने कितनी और सुर्खियां उनकी बदनामी की वजह बनी। सफेद झक दाढ़ी और दमकते व्यक्तित्व क े मकबूल ने कभी किसी विवाद को अपने दिल पर नहीं लिया। यही बिंदास अंदाज उनके प्रशंसकों की लंबी कतार बढ़ाता रहा और यही बेलौस फख्खड़पन उन्हें देश से दरबदर भी करता रहा।

कभी हिन्दू देवी-देवताओं के विवादास्पद चित्र, कभी नागरिकता के लिए कतर जैसे देशों की शरण, कभी माधुरी, तब्बू और अमृता राव जैसी नामी अभिनेत्रियों के लिए अपनी पसंदगी जाहिर कर मीडिया में छा जाना, कभी फिल्म निर्माण के क्षेत्र में बिना किसी तैयारी के कूद पड़ना और कभी अपनी पेंटिग्स की आकाश छूती कीमतों के लिए मशहूर यह कलाकार 'गुमनामी के अंधेरे' से लुकाछिपी करता रहा। मीडिया से ज्यादा दिन हुसैन दूर रह ही नहीं पाते थे।

95 वर्षीय इस खूबसूरत बुजुर्ग ने अपने पर बुढ़ापा आने ही नहीं दिया। 17 सितंबर 1915 में भारत के महाराष्ट्र राज्य के पंढरपुर में जन्में मकबूल ने अपनी अंतिम सांस लंदन में ली। उनके पारिवारिक सुत्रों ने बताया कि सुबह 2.30 मिनट पर हुसैन ने अपनी समस्त कला और विवाद दुनिया को सुपुर्द कर अंतिम यात्रा के लिए रूखसत लीं। फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें भारत के पिकासो के नाम से नवाजा था। वारंट, देश निकाला, संपत्ति जब्त, विरोध, अश्लीलता, धर्म का अपमान, मीडिया, एक्ट्रेस जैसे शब्द मकबूल से आजीवन जुड़े रहे।

1940 से हुसैन की कला मुखर होने लगी और 1947 में वे प्रगतिशील कला ग्रुप( प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप) में शामिल हुए। हुसैन की आरंभिक शिक्षा मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में भी हुई। 1952 में ज्युरिख में उनकी पहली एकल प्रदर्शनी लगी। हुसैन की कला हमेशा ही सीमाओं से परे रहकर अभिव्यक्त हुई और यही वजह है कि उनकी प्रसिद्धि भी देश काल की सीमाओं से ऊपर युरोप और अमेरिका के कैनवास पर अधिक चटख रंगों के साथ उभरीं। 1955 में भारत सरकार ने उनकी कला को पद्मश्री से सम्मानित किया।

1967 में मकबूल ने एक चित्रकार की नजर से अपनी पहली फिल्म बनाई। इसे बर्लिन फिल्म फेस्टीवल में प्रदर्शित किया गया और फिल्म ने 'गोल्डन बियर' भी जीता। 1973 में हुसैन पद्मभूषण से सम्मानित हुए और 1986 में राज्यसभा के सदस्य मनोनीत किए गए। 1991 में उन्हें पद्मविभूषण से नवाजा गया।

हुसैन ने दुनिया भर में भारत के सबसे धनाढ्य पेंटर के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित किया। हुसैन को कला जगत की 'स्मार्ट' क्रांति कहना अनुचित नहीं होगा। क्योंकि कलाकार इससे पहले तक गरीबी और लाचारी के शिकार होते रहे थे लेकिन 'हुसैन क्रांति' ने दुनिया को संदेश दिया कि अगर स्वयं की पैकेजिंग की कला जानते हैं तो कला भी आजीविका के अतिरिक्त 'शान ओ शौकत' का जरिया बन सकती है। हुसैन की पेंटिंग्स वैश्विक स्तर पर करोड़ों की बोलियों से उठाई जाती रही है। हाल ही में उनकी एक पेंटिंग की बोली 2 मिलीयन डॉलर के लगभग लगी थी।

फिल्म निर्माण-निर्देशन के क्षेत्र में उनका रूझान हमेशा बना रहा। गजगामिनी जहां उन्होंने माधुरी दीक्षित के रूप से प्रभावित होकर बनाई वहीं मीनाक्षी : ए टेल ऑफ थ्री सीटिज में उनकी प्रिय तारिका तब्बू बनीं। हाल ही में उनकी आत्मकथा पर आधारित फिल्म फ्लोर पर थीं जिसमें श्रेयस तलपड़े यंग हुसैन की भूमिका में हैं। फिल्म का शीर्षक अस्थाई तौर पर 'द मेकिंग ऑफ द पेंटर' है।

92 वर्ष की अवस्था में मकबूल फिदा हुसैन को केरल सरकार द्वारा अत्यंत प्रतिष्ठित राजा रवि वर्मा अवॉर्ड की घोषणा की गई लेकिन कतिपय विवादों के चलते उन्हें यह अवॉर्ड ‍नहीं दिया जा सका।

विवादों से अटूट नाता होने के बावजूद हुसैन विश्व कला जगत के सम्माननीय चित्रकार थे। उनका व्यक्तित्व और कला संसार को योगदान अविस्मरणीय रहेगा। आज उनके जाने से हर कला-संस्कृति प्रेमी स्तब्ध हैं। कहीं किसी ने लिखा है,

' अभी कुछ देर और रूकते,
कुछ देर और ठहरते
कि रंग भी तो बचे है,
कैनवास का
कोरा है एक कोना,
यह तस्वीर मुकम्मल करते कि
फनकार ऐसे नहीं जाते
यूं शाम ढलते-ढलते....!

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