महान भविष्यद्रष्टा राजा राममोहन राय

जयंती : 22 मई - पुण्यतिथि : 27 सितंबर

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आधुनिक भारत के निर्माता राजा राममोहन राय ऐसे बहुआयामी समाजसेवी थे जिन्होंने अकेले दम पर सदियों से रूढ़ियों में जकड़े भारतीय समाज के सुधार के लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम किया।

तमाम विरोधों की अनदेखी करते हुए राममोहन राय ने सती प्रथा की समाप्ति के लिए संघर्ष किया और तत्कालीन अँग्रेज शासक के सहयोग से इस ‘भयान क ’ प्रथा का अंत कर ही दम लिया।

पिछले कुछ समय से ‘नॉलिज इज पाव र ’ पर जोर दिया जा रहा है पर भविष्यदृष्टा राममोहन राय ने 18वीं सदी में ही इसका महत्व समझ लिया था। उस समय भारत में स्कूलों में सिर्फ फारसी और संस्कृत की शिक्षा का जोर था। कम ही लोगों को पश्चिमी शिक्षा खासकर विज्ञान की जानकारी थी जबकि यूरोप में नित नए शोध हो रहे थे।

  आधुनिक भारत के निर्माता राजा राममोहन राय ऐसे बहुआयामी समाजसेवी थे जिन्होंने अकेले दम पर सदियों से रूढ़ियों में जकड़े भारतीय समाज के सुधार के लिए विभिन्न क्षेत्रों में काम किया...       
महान राममोहन राय ने देश के पिछड़ेपन को महसूस करते हुए समझ लिया था कि आधुनिक शिक्षा खासकर अँग्रेजी, गणित एवं विज्ञान के अभाव में देश का भविष्य अंधकारपूर्ण ही रहेगा। इसके लिए उन्होंने अपने पैसे से कॉलेज शुरू किया जिसमें अँग्रेजी एवं विज्ञान की पढ़ाई होती थी।

देश के ऐसे महान सपूत का जन्म बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में 22 मई 1772 में ब्राह्मण रमाकांत राय के घर हुआ था। बचपन से ही उन्होंने भगवान में भरोसा था लेकिन वह मूर्ति पूजा के विरोधी थे। कम उम्र में ही वह साधु बनना चाहते थे लेकिन माता का प्रेम इस रास्ते में बाधा बना।

  लगन के पक्के राजा ने अपनी भाभी को सती होते देखा था। इस दर्दनाक घटना ने उन पर ऐसा असर डाला कि उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को खत्म करने की ठान ली। उल्लेखनीय है कि इसके लिए उन्हें तमाम विरोधों का सामना करना पड़ा...      
परंपराओं में विश्वास करने वाले रमाकांत चाहते थे कि उनके बेटे को ऊँची तालीम मिले। इसके लिए कम उम्र में ही राममोहन राय को पटना भेज दिया गया। कुशाग्र बुद्धि के बालक ने उस समय के प्रसिद्ध अरबी एवं फारसी विद्वानों से शिक्षा ग्रहण की। बाद में उन्होंने अँग्रेजी का महत्व समझा और उसका अध्ययन शुरू किया। अँग्रेजी के अध्ययन से उन्हें यूरोप तथा फ्रांसीसी क्रांति की जानकारी मिली।

मूर्ति पूजा के विरोधी राममोहन राय का इस मुद्दे पर पिता से मतभेद था और वह एक बार घर छोड़कर चले गए। लंबे चौड़े शरीर के मालिक एवं आकर्षक व्यक्तित्व के धनी राममोहन राय पश्चिमी देशों की अंधाधुंध नकल के पक्ष में नहीं थे। वह अपनी संस्कृति की अच्छाई को भी बनाए रखने के पक्षधर थे जबकि रूढ़िवादी एवं जड़ रीति रिवाजों के विरोध में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी।

उस समय किसी हिंदू के लिए समुद्र पार करने या विदेश जाने की मनाही थी लेकिन राममोहन राय ने इस मान्यता को भी खारिज कर दिया। वह उन शुरुआती कुछ लोगों में थे जिन्होंने इस ‘दकियानूस ी ’ मान्यता की अनदेखी की और इंग्लैंड की यात्रा की। जब राममोहन राय लीवरपूल (इंग्लैंड) पहुँचे तो वहाँ के प्रमुख नागरिक उनकी अगवानी के लिए मौजूद थे। उन्होंने फ्रांस की भी यात्रा की थी।

मौजूदा दौर में प्रेस की आजादी के लिए जोर-शोर से आवाज उठती रहती है लेकिन राममोहन राय ने 19वीं सदी में ही इस पर बल दिया और तत्कालीन शासक से टकराव मोल लिया। उनका मानना था कि समाचार पत्रों पर सरकार का नियंत्रण नहीं होना चाहिए। सचाई सिर्फ इसलिए नहीं दबा देनी चाहिए कि वह सरकार को पसंद नहीं है ।

   उस समय किसी हिंदू के लिए समुद्र पार करने या विदेश जाने की मनाही थी लेकिन राममोहन राय ने इस मान्यता को भी खारिज कर दिया। वह उन शुरुआती कुछ लोगों में थे जिन्होंने इस ‘दकियानूसी’ मान्यता की अनदेखी की और इंग्लैंड की यात्रा की....      
अँग्रेज राज में ऐसी आवाज उठाना हिम्मत की बात थी लेकिन उन्होंने यह भी बखूबी किया और अंतत: सफल रहे। उन्होंने मिरात-उल अखबार और संवाद कौमूदी जैसे पत्रों का प्रकाशन भी किया। वह अपने पत्रों में नियमित रूप से अपने विचार व्यक्त करते और विरोधियों का जवाब देते।

लगन के पक्के राजा ने अपनी भाभी को सती होते देखा था। इस दर्दनाक घटना ने उन पर ऐसा असर डाला कि उन्होंने इस अमानवीय प्रथा को खत्म करने की ठान ली। उल्लेखनीय है कि इसके लिए उन्हें तमाम विरोधों का सामना करना पड़ा। लेकिन धुन के पक्के राममोहन राय की मेहनत रंग लाई और तत्कालीन सरकार ने सती प्रथा को अपराध घोषित कर दिया।

ब्रह्म समाज तथा आत्मीय सभा के संस्थापक तथा आजीवन रूढ़िवादी रिवाजों को दूर करने के लिए प्रयासरत राममोहन राय का 27 सितंबर 1833 को ब्रिस्टल (इंग्लैंड) में निधन हो गया। जीवन भर समाज से संघर्ष करने वाले राममोहन राय भले ही इस दुनिया में नहीं रहे हों लेकिन जब भी आधुनिक भारत की चर्चा होगी उनका नाम सदैव बड़े सम्मान से लिया जाता रहेगा।
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