हिन्दी कविता : इस धरा पर आदमी यदि नि:स्वार्थ होता

राकेशधर द्विवेदी
इस धरा पर आदमी यदि,
नि:स्वार्थ होता।


 
तो किसी सुन्दर कविता,
का भावार्थ होता।
 
न होते दंगे-फसाद,
न होता जातिवाद।
धर्म के नाम पर,
न इतना बकवास होता।
 
कर्म न होते हुए इस कदर,
बुरे उसके।
न जमाने की बुराइयों, 
का पैरोकार होता। 
 
हर तरफ सुख-शांति होती,
मंगल गीत बजता।
बड़े-बुजुर्गों के मन,
में न अवसाद होता।
 
गीत बजते होली के,
हर दिन यहां पे।
हर किसी के दिल में,
इत्मीनान होता।
 
जलते दीये दिवाली,
के हर रोज घर में।
अंधेरा न दिलों में, 
आबाद रहता।
 
गले मिलता आदमी,
हर एक आदमी से।
न दिल में कोई रंज होता,
न मन में कोई मलाल होता।
 
न भूख से मरता कोई,
न जिंदगी बदहाल होती।
केवल तरक्की और,
विकास के कारण,
हर शख्स खुशहाल होता। 
 
इस धरा पर आदमी यदि,
नि:स्वार्थ होता।
तो किसी सुन्दर कविता,
का भावार्थ होता।
 
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