कल तक दुलारता रहा तुम्हारी आवाज का मयूरपंख मेरे शर्माते कानों को, आज चुभ रहे हैं उसमें छुपे काँटे और रिस रहा है मेरे मन की कच्ची धरा से बेबसी का लहू, कितनी बार मैंने चाहा था कि तुमसे बने इस बेनाम से रिश्ते को थोड़ा वक्त दूँ और सोचूँ कि रिवाजों के दायरे में क्या सही है और क्या गलत, मगर हर बार चंपई हवा के संग बेसाख्ता बहकर आया तुम्हारा भीगा प्यार और आवाज का सुकोमल मयूरपंख,
एक मखमली अहसास के तले खिलती मेरी मुस्कान फिर कुछ सोच ही नहीं सकी तुम्हारे सिवा।
आज जब दूरियों के भँवर में लिपटा मेरा मन याद करना चाहता है तुम्हें तो जाने क्यों मेरे हर अहसास शिथिल हो गए हैं और मेरे कानों का गुलाबी रंग उड़ गया है।
आँखों से बहती खारी और पारदर्शी नमी से कब तक सिंच पाऊँगी हमारे संबंधों का सूखता-झरता बेनाम पौधा?
आओ, आज इसे उखाड़ ही दें। वक्त की कब्र में ऐसे कितने ही पौधे दफन हैं जो जमीन के भीतर लहलहा रहे हैं मगर मुरझाए से खड़े हैं।