गण और तंत्र के बीच
एक अघोषित दीवार खड़ी है
जिसके एक ओर सत्ता का शोर है,
और दूसरी ओर भूख की खामोशी।
तंत्र चमक रहा है
नीऑन लाइटों और भाषणों में,
गण बुझ रहा है
दीयों और सपनों में।
सत्तर साल बाद भी
आजादी एक अधूरी कविता है
जो हर गरीब की रसोई में
धुएं बनकर उठती है।
रोटी आज भी सबसे महंगी चीज़ है,
मोबाइल से सस्ता इंसान,
विकास के पोस्टर पर मुस्कराते चेहरे
असल में आंकड़ों के मेकअप से सजे हैं।
सड़कें चौड़ी हैं, पर पेट खाली,
बिल्डिंगें ऊंची हैं, पर दिल सिकुड़े हुए।
तंत्र कहता है
भारत आगे बढ़ रहा है।
गण सोचता है
मैं कब बढ़ूंगा?
स्कूलों में बच्चे अब भी
भूख और अक्षर के बीच झूलते हैं,
अस्पतालों में मौत
सबसे सस्ता इलाज है,
और राजनीति में सच्चाई
सबसे महंगा सौदा।
संविधान ने कहा था
तुम्हें अभिव्यक्ति की आज़ादी है।
पर गण पूछता है
किससे कहूं?
क्योंकि बोलना
अक्सर गुनाह ठहराया जाता है।
वो जो सच बोलते हैं,
खड़े कर दिए जाते हैं हिरासत में।
देश की गलियों में
सन्नाटा लोकतंत्र का नया गान है।
जनता अब सिर्फ चुनाव के दिन
गण कहलाती है
बाकी सारे दिन
भीड़।
तंत्र अपने को ईश्वर मान बैठा है,
और गण उसके दरबार का भक्त।
जब रोटियां नीलाम होती हैं
और नीति बिकती है,
तब राष्ट्र की आत्मा
अपना चेहरा ढंक लेती है।
पर यह कविता केवल रोना नहीं,
एक पुकार है
कि गण भी जिम्मेदार है।
जो अपना मत बेच देता है,
वह अपना भविष्य गिरवी रखता है।
जो बेटी के गर्भ को मार देता है,
वह देश की आत्मा का गला घोंटता है।
जो भ्रष्टाचार को देखकर चुप रहता है,
वह भी उसी अपराध का हिस्सा है।
तंत्र गिर गया है,
क्योंकि गण झुका हुआ है।
जब गण उठेगा
तो तंत्र सीधा हो जाएगा।
रवीन्द्रनाथ की प्रार्थना अब भी अधूरी है
जहां मस्तिष्क भय से मुक्त हो,
जहां वाणी सच्चाई से उठे,
जहां विचार मरुभूमि में न खोएं,
जहां कर्म पूरे हों, न टुकड़ों में बांटे जाएं।
हे प्रभु, उस स्वप्निल स्वराज्य में
फिर एक बार भारत को जगाओ।
कि गण और तंत्र के बीच
अब कोई दीवार न रहे
बस एक सेतु हो,
जिस पर चलकर
हर आदमी खुद से,
और अपने देश से जुड़ सके।
तब ही सच में कह सकेंगे
भारत गणराज्य नहीं,
भारत जनराज्य है।
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