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रिश्तों की सच्चाई से रूबरू कराती कविता : दरख्त

Webdunia
- निशा माथुर
 






 
 
एक दरख्त की तरह, शायद जिंदगी रह गई,
आंधियों के जोर से बस सिमटती रह गई।
मौसमों के मिजाज तो दर-बदर बदलते रहे,
आती जाती बहार को बस देखती रह गई।
 
क्या पता, क्या पाया, कहां पे क्या खो दिया,
हाथ की रेखाओं को, यूं घिस घिस काला किया,
देखा रिश्तों के खून को, पानी के रंग जैसा,
अपने ही हाथों, अपने रिश्तों का कत्ल किया,
जिंदगी कभी सुबह तो कभी सांझ देखती गई,
एक दरख्त की तरह, शायद जिंदगी रह गई,
 
गम की थकन से हारी, मायूसियां गले लगाई,
छुप-छुप के रोना चाहा, पर हंसी लबों पे लाई,
अपनों से हुआ सौदा, जब मन के स्वाभिमान का,
आहत से ढूबा तन, चोट खाकर भी मुस्काई,
दिल पर लगे जख्मों के निशान देखती रही।
एक दरख्त की तरह, शायद जिंदगी रह गई,
 
आदत-सी हो गई अब तो, शोलों से जल जाने की,
किसी कविता, किसी नज्म या गजल को गाने की,
नींद से बोझिल पलकों के अनायास खुल जाने की,
खुली आंखो में पलते ढेरों, सपनों के कुम्हलाने की,
तेज हवाओं से बिखरा, मेरा घरौंदा समेटती रही।
आती जाती बहार को बस यूं देखती ही रह गई।
एक दरख्त की तरह, शायद जिंदगी रह गई। 
 
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