हिन्दी कविता : दंगे

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फिर मरा है कोई
इस दंगे की आग में,
न हिन्दू, न मुसलमान
मर गया इंसान 
इस दंगे की आग में
 

 
बैठे हैं सियासतखोर घरों में
आग है बस हमारे दरों पे
आम ही मरता आम ही मारे 
इस दंगे की आग में
 
भस्म न होते भस्मासुर ये
भस्म हुए बस घर मेरे
जल-जल उठी इंसानियत
इस दंगे की आग में
 
आंखों के आंसू अब सूखे
दर्द हलक में अटका है
इंसान नहीं हैवान हुए सब 
इस दंगे की आग में
 
नहीं-नहीं अब और नहीं
बहुत हुआ अब और नहीं
जल-जल उठी आत्मा मेरी
इस दंगे की आग में। 
 
शब्द एवं भाव संयोजक- आलोक वार्ष्णेय, हाथरस (उप्र)
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