हिन्दी कविता : ताकि अभिव्यक्ति जिंदा रहे...

राकेशधर द्विवेदी
हमें याद है वह पल
जब तुमने शार्लीन में
अपनी उस हरकत को दोहराया

 

 
 
 
जो तुमने अंजाम दी थी पेशावर में
किशोरी मलाला के साथ व
मुंबई के निर्दोष नागरिकों के साथ
 
शायद इस आशा से
कि समाज तुम्हारे भय से
पाषाण युग में जाने को तैयार हो जाएगा
 
लेकिन तुम नहीं जानते
तुम मार सकते हो लेखकों को
लेकिन उसकी लेखनी जिंदा रहेगी।
तुम मार सकते हो विचारकों को
लेकिन विचारधारा अमर रहेगी
 
तुम नहीं जानते कि तुम
कलमनवीस को मार सकते हो
लेकिन कलम की धार जिंदा रहेगी
 
वह लिखेगी और निर्भयता के साथ
तुम्हारे हर जुल्मो सितम के खिलाफ
देगी जन्म लाखों कलम नवीसों को
जो जन्म देगा एक नए तेवर एक नए इंक्लाब को
व अनेक खबर नवीसों को
जो दुनिया में शुरुआत करेंगे
एक वैचारिक क्रांति की
 
मजहबी कट्टरता और चरमपंथ के खिलाफ
अन्याय और शोषण के दमन-चक्र के खिलाफ
नए उत्साह नए उमंग
नए विश्वास के साथ
हर पल विजय के गीत
और आत्मविश्वास के साथ
 
और लड़ते रहेंगे जंग
तुम्हारे आंतकवाद के खिलाफ
और करते रहेंगे मृत्यु का वरण
हंसते-हंसते
‍ताकि अभिव्यक्ति जिंदा रहे। 
 

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