जीवन की दौड़-भाग पर कविता : सर्वोत्तम की खोज में

राकेशधर द्विवेदी
हर तरफ एक ही रट लग रही
मुझे सर्वोत्तम चाहिए


 
हर व्यक्ति दौड़-भाग रहा है
बस एक ही चीज मांग रहा है
सरजी मुझे चाहिए बेस्ट
इसके लिए मैं नहीं कर रहा रेस्ट
 
दौड़-धूप की भी इस आपाधापी में वह परेशान है
स्वयं को ही नहीं, दूसरों को कर रहा हैरान है
उसे इस सत्य का रह गया नहीं ज्ञान है
 
सर्वोत्तम सर्वोच्च शिखर की भांति है 
जहां पर न है कोई वनस्पति न कोई जीवन
केवल बर्फ से ढंकी चोटियां
और निर्जन-सी घाटियां
बियाबान मरुस्थल और घास के मैदान
जिनपे श्वास की कमी से जिंदगी है परेशान जैसे व्यंग्य कर रही है
 
तुम्हारी सर्वोच्चता किस काम की
जब न दे सकती जीवन किसी लाचार को
तुम तो चांद की तरह हो
जिनका मुंह टेढ़ा है
जहां पर काले-कुरूप पत्थर हैं
जो बार-बार अपने
बहुरुपिये से कर रहा है व्यक्ति को भ्रमित
 
सत्य के अन्वेषण पर वह पाया गया जीवनहीन-संक्रमित
तो फिर क्यों नहीं कर रहे
इस सत्य को स्वीकार कि
सर्वोत्तम-सर्वोच्चता में नहीं
सरलता में है, जो
दूसरे को जीवन देने का प्रयास है
खुद दर्द सहकर दर्द दूर करने का अभ्यास है
 
इस शाश्वत सत्य का उद्घोष है
अपने लिए तो सब जीते हैं
जीवन वह है जो दूसरे के काम आए।
 
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