नई कविता - खता हुई ही होगी मुझसे

देवेन्द्र सोनी
अट्ठावन में आते-आते 
लगने लगा है
समा गए हैं मुझमें 
बाबूजी मेरे। 
 
हो गई है वही चाल-ढाल
झुक गए हैं कंधे और
स्वभाव में आने लगी है नरमी
हां, संतोष और असंतोष के बीच
बना रहता है द्वंद्व जरूर
उपजा है जो मानसिक थकान
और बेवजह की निराशा से।
 
करता हूं महसूस खुद में उनको
जब आती है खांसी या 
घेरने लगती है तकलीफें वही
जो सहते थे वे अक्सर 
और जिन्हें बताने से कतराते थे
उम्र के अंतिम पड़ाव पर ।
खता हुई ही होगी 
निश्चित ही मुझसे भी 
बरतने की कोताही
किया ही होगा मैंने भी 
जाने अनजाने नजरअंदाज उन्हें।
 
लगता है अब यह सब हरदम ही
क्योंकि होते हैं वे महसूस मुझे
मेरे अंदर ही।
 
उम्र का यह अंतिम पड़ाव
सिखाता और याद दिलाता है
बहुत कुछ स्मृति से उनकी।
 
होती ही है सबसे जिंदगी में
खता भी और रह ही जाती है
कोई न कोई कसर भी सेवा में।
 
करें याद इन्हें और
दें वह शिक्षा बच्चों को अपने
जिससे न हो कोई गलती
देख रेख में बुजुर्गों की।
 
मिलेगा इसी से वह आत्म सुख
जिसकी दरकार है सबको।

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