तमाशाई भी हम ही हैं...

सलिल सरोज
तमाशा भी हम हैं और तमाशाई भी हम ही हैं,
शराफत की बोटियां काटते कसाई भी हम ही हैं।
 
ज़ख्म भी हम हैं और ज़ख्मी भी हम ही हैं,
ज़हर बनाकर फिर बांटते दवाई भी हम ही हैं।
 
दंगा भी हम हैं और दंगाई भी हम ही हैं,
लाशों के ढेर पर बांचते रुबाई भी हम ही हैं।
 
दरिंदा भी हम हैं और दरिंदगी भी हम ही हैं,
ज़ुबान की चाशनी से शनासाई भी हम ही हैं।
 
शैतान भी हम हैं और शैतानी भी हम ही हैं,
भेष बदलकर छलते हुए फिर मसीहाई भी हम ही हैं।

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