कविता : सुनो, सुन रहे हो ना तुम

राकेशधर द्विवेदी
सुनो, सुन रहे हो ना तुम
रोज तुम सबेरे मेट्रो से 
ऑफिस निकल जाते हो 
देर रात को घर खिसियाते हुए से आते हो 
झल्लाए गुस्साए मुंह घुमाकर सो जाते हो
नहीं करते किसी से सीधे मुंह बात
ऐसा क्या हो गया तुमको अकस्मात्
सुना है ऑफिस में महिला सहकर्मी से 
बहुत मुस्कराकर बतियाते हो
बॉस की बात बिना सुने 
हां हां करके मूंड़ी घुमाते हो 
मैं कैसे बताऊं कि वर्षों पहले 
तुम्हारा लगाया हुआ गुलाब का पेड़
पड़ोसी की बोगन बेलिया से आंखें लड़ाता है
और वर्षों पहले लगाई गई रातरानी 
अब बड़ी हो खिलखिलाने लगी है
हां कुछ भौंरे जरूर मंडराने लगे हैं
मैं तुम्हारी बेरुखी को दर किनार कर 
तुम्हारे फूलों को सजाती संवारती हूं
और तुम्हारी निष्ठुरता से तंग आकर 
मैंने भी लिखना शुरू कर दिया है 
कैनवस पर कविता 
किंतु स्याही से नहीं आंसु्ओं से 
क्या तुम उसे पढ़ सकोगे? 
 

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