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कविता : बचपन का जमाना
Webdunia
- शिवानी गीते
बड़ा याद आता है वो बचपन का जमाना,
मां की गोद में सोना और दोस्तों संग पतंग उड़ाना,
छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे से रूठ जाना,
वो बट्टी बोल एक दूसरे को गले लगा फिर एक हो जाना,
वो भी क्या दिन थे जब हम मिट्टी में खेलते थे,
पेड़ों से आम तोड़ने के लिए, एक दूसरे पर खड़े हो एक दूसरे का बोझा भी झेलते थे,
खेलते थे खेल हम जो सभी बड़े निराले थे,
मस्ती में घूमते थे और कहते हमें सब मतवाले थे,
छोटी-सी साईकल होती थी हमारे पास,
और लेकर निकल पड़ते थे उसे हम कहीं दूर दराज।
बड़े से आंगन में खुले आसमान के नीचे नानी हमें कहानियां बड़ी सुनाती थी।
रात में भूत के नाम से हम उन्हें डराते और झूठ-मूठ में वो भी डर जाती थी।
गिल्ली डंडा, बर्फ पानी जैसे खेल तो अब पुराने हो गए,
भाग दौड़ भरी जिंदगी में हम अपनो अनजाने हो गए।
नानी की कहानी, दादी की डांट सुने तो जमाने हो गए,
वो भी क्या दिन थे, कहते- कहते हम जवानी में बचपन के दीवाने हो गए।
त्यौहार पर दादा दादी के पैर छुना पूराने रिवाज हो गए,
बैठ कर बचपन की यादें ताज़ा करते हुए ना जाने कितने इतवार हो गए।
उम्र बढ़ती रही और वो ना जाने मन में कहा खो गया,
वो हमारा बचपन है रुठ कर आंख मूंद कर सो गया।
आखिर एक ही तो है हमारा सबसे अनमोल खजाना,
बड़ा याद आता है वो बचपन का जमाना।
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