कविता : कागज का रावण

देवेंद्रराज सुथार
दुष्कर्म वृत्ति से
राम का भारत शर्मिंदा है।
आज एक नहीं
लाखों रावण ज़िंदा हैं।
 
बेरोज़गारी का रावण
प्रतिभाओं को निगल रहा।
जातिवाद का रावण
वैमनस्य पैदा कर रहा।
 
कालेधन के रावण से
पूंजीपतियों के हौंसले बुलंद हैं।
महंगाई के रावण से
दाल में तड़का हुआ बंद है।
 
भ्रष्टाचार का रावण
नैतिकता को मात कर रहा।
गुंडे-मवाली वाला तंत्र
राष्ट्र के साथ घात कर रहा।
 
हर चेहरे और सोच में
एक रावण पल रहा।
महज़ दिखावे के लिए
काग़ज़ का रावण जल रहा।
 
अब श्री राम को पुनः
धरा पर आना होगा।
लाखों रावणों का वध कर
रामराज्य लाना होगा।

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