हिन्दी कविता : अमृत मिले या मिले हलाहल...

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- कैलाश प्रसाद यादव 'सनातन'


 

लोकनायक जयप्रकाश एवं सदी के महानायक अमिताभ को वृद्धावस्था में भी कर्मयोगी के रूप में समर्पित...
 
मौत नहीं आ जाती तब तक, हंसते-हंसते जीना है,
अमृत मिले या मिले हलाहल, बिन कोलाहल पीना है।
 
सारा सागर पीकर देखा, प्यास नहीं बुझ पाई है,
आओ बैठें कहीं किनारे, नदिया का जल धीरे-धीरे, बूंद-बूंद कर पीना है।
 
अमृत मिले या मिले हलाहल, बिन कोलाहल पीना है।
 
ऊंचे पर्वत चढ़ते-चढ़ते, जब-तब गिरता खाई में,
तन के संग-संग मन भी टूटा, फिर भी लूं अंगड़ाई मैं।
 
टूटा तन तो सिल सकता है, मन टूटे तो धीरे-धीरे अश्रुधार से सीना है,
अमृत मिले या मिले हलाहल, बिन कोलाहल पीना है।
 
जिस धरती पर जीवन खिलता, वो भी जब-तब हिलती है,
कभी-कभी तो चांद चांदनी, सूर्य किरण से मिलती है।
 
कहीं-कहीं तो सागर तट भी, पर्वत-शिख को निगले हैं,
उथल-पुथल कर मंथन करके रत्नमणि ही उगले हैं।
 
इतना सबकुछ घटते देखा, मरघट फिर क्या मारेगा,
मन से जब तक नहीं हारोगे, तब तक तन नहीं हारेगा।
 
आलिंगन जग करके देखा, मन-सरगम नहीं बज पाई है,
रक्त उगाते कांटे अक्सर कलियां खिलतीं धीरे-धीरे, जहां पर गिरा पसीना है।
 
अमृत मिले या मिले हलाहल, बिन कोलाहल पीना है।
 
 
 
 
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