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हिन्दी कविता : इल्म
Webdunia
- आशुतोष झा
अलग क्यों मानते हैं
क्यों सब तरफ लकीरें खींच दी हैं
तान दिए इमारतों के शामियाने
बैठा दिया संतरी लेकर बंदूक
क्यों किया यह सब क्या है इसकी तस्दीक
ये पानी की लकीरें मिट जाती हैं चंद तेज अंगड़ाइयों से
कहां जाती हैं ये सरहदें ये तार ये दीवार
जब धरा खुद ही उन्हें बिखेरती है
अमन रंग से तर मुस्कराता मिला यह जीवन
क्यों भींच दिया सुरम्य यह वसन अपनी दरदरी सोच में
कि लगा कि सब खून के छींटें धुल जाएंगे गंगा के आंचल तले
और सारे काले पदचिह्न हो जाएंगे धुंधले काबा की राहों में गर चले
कि शायद हिमालय की बर्फ ठंडा कर देगी गर्म दुश्मनी के हौसले
और लंगर की प्रसादा मिटा देगी धधकती भूख...
मानो गिरजा की हर प्रार्थना से नहीं होगी अब कोई चूक...
मुस्कराकर रो लेंगे मजार पर कि मेरे मजार पर भीड़ हो
बनवा देंगे नाम से एक मंदिर कि अच्छा जान मेरे नाम की भी प्रार्थना तामीर हो
बन ही जाएगा सख्त पत्थर का एक पुतला
दुनिया कह सकेगी ये बंदा था बेहद दूध का धुला
हर ताल हर घाट पर पानी पी लिया
पर पानी का पीना भय था मौत का लिया
बाहर के सारे उसूल हैं पाजेब मजहबी खांचों के...
बांध के चल क्या कोई सका है गठरी जिंदा लाशों के...
फकत जजीरा है एक झूठ का यारों
कौन कहां पहुंचता तुम किसे भी पुकारो
खुद का इल्म ही खुदा है...
नहीं कभी वह रहा जुदा है...।
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