प्रेम पर कबीर के दोहे : प्रेम गली अति सांकरी

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प्रेम न बाड़ी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय !
राजा पिरजा जेहि रुचे, शीश देई लेजाए !!
प्रेम पियाला जो पिये शीश दक्षिणा देय !
लोभी शीश न दे सके,नाम प्रेम का लेय !!
जब मैं था तब गुरु नहीं,अब गुरु हैं हम नाय !
प्रेम गली अति सांकरी, जा में दो न समाय !!
जा घट प्रेम न संचरे,सो घट जान मसान !
जैसे खाल लुहार की,सांस लेतु बिन प्रान !!
 
प्रेमभाव एक चाहिए,भेस अनेक बनाय !
चाहे घर में बास कर ,चाहे बन को जाय !!
कबीरा यह घर प्रेम का,खाला का घर नाहीं,
सीस उतारे भुइं धरे,तब पैठे घर माहीं !!
--संत कबीर साहब
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