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नई कविता : धड़कन हो तुम
Webdunia
- देवेंन्द्र सोनी
धड़कन हो तुम
रुक ही गई थी धड़कन
जब इकलौते पुत्र ने
अपनी शादी के
दो वर्ष बाद ही
बूढ़े हो चुके पिता से कहा था -
अब नहीं रह सकता
मैं तुम्हारे साथ ।
तंग आ गया हूं रोज-रोज की
हिदायतों और टोका-टाकी से
बदल चुका है जमाना और
बदल गई हैं मान्यताएं ।
जोर से बोला था बेटा -
मेरी और तुम्हारी प्राथमिकताओं में
जमीन आसमान का फर्क है।
मानता हूं,
आप रहे होंगे तंगहाली में
काट कर पेट अपना
संवारा है जीवन मेरा, पर
यही तो सब कुछ नहीं ।
मुझे भी देखना है अब
अपना और बड़ी होती बेटी का भविष्य
पत्नी के भी मेरी
करना है सपने पूरे ।
साथ रहकर कुछ बचता नहीं है
इतनी दवाओं का खर्च पचता नहीं है।
ऊपर से रोज-रोज आपके
मेहमानों का आना-जाना
जरा भी नहीं भाता है
उनकी जली-कटी बातों से
मन अवसाद से घिर जाता है।
अलग रहेंगे तो नहीं होगा
रोज-रोज का विवाद
मिल जाएगी आपको
मुफ्त ही सरकारी दवाएं
मिल जाएंगी और भी वे अन्य सुविधाएं
जो नहीं लेते हो आप
मेरे ओहदे की वजह से।
सुनकर बेटे की ये दलील
सैलाव सा उतर आया आंखों में
पर जज्ब कर अपने आंसुओं को
धीरे से बोले पिता - सोच ले बेटा !
मैं तो जी लूंगा जैसे-तैसे, पर -
धड़कन है तू इस दिल की
जाते ही तेरे यह भी चली जाएगी
लाख करेगा जतन फिर वापस न आएगी।
कहता हूं - ऐसे बेटों से
जो छोड़कर माता-पिता को
रहना चाहते हैं अलग
स्वतंत्रता तो मिल जाएगी तुम्हें
खर्चे से भी बचा जाओगे, पर
खोकर वह दिल जिसमें -
धड़कते हो तुम सदा ही
धड़कन बनकर।
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