कविता : आशाओं का दीप

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निशा माथुर
अंत जिसका ना बदला, हम वो किताब बन कर रह गए,
जिसने चाहा पढ़ा, फाड़ा भी तो, पन्नों को संभाले रखा।
तूफानों के न जाने कितने काफिले, आए और गुजर गए ,
सागर संग यारि‍यां करके, अपनी कश्ती को संभाले रखा ।
और ! लम्हा-लम्हा मेरी आशाओं का वो दीप जलता ही रहा।
 

 
अमावस की रात ने चांदनी का, अहसास कराया ही नहीं,
खुद की क्षमताओं ने दीयों पर, मेरा हक बनाए रखा ।
राधा, रूक्मणी, अर्जुन सुदामा, जैसी कहानी बन न सकी,
जिसे दर्शन तक ना मिला कृष्ण का, वो मीरा बनाए रखा।
और ! लम्हा-लम्हा मेरी आशाओं का वो दीप जलता ही रहा।
 
मैंने देखा बन के पंछी नील गगन में, फिर उड़ान भर के,
राह में अपनी परवाज पर घमंड, कभी ना बनाये रखा ।
जो जोत जली मंदिर में, दिवाली में, और मातम में भी,
उस टिमटिमाती लौ पर भी, अपना विश्वास बनाए रखा ।
और! लम्हा-लम्हा मेरी आशाओं का वो दीप जलता ही रहा।
 
पंतगे-सी जलना नियति है माना, उस प्रज्ज्वलि‍न की,
मैंने अपनी शहादत पर हर पल अभि‍मान बनाए रखा।
माना ये विषय चिंतन है और बहता जीवन लघु अवधि का,
बिना तेल बाती, उपलब्धि‍यों पर फिर भरोसा बनाए रखा ।
और! लम्हा-लम्हा मेरी आशाओं का वो दीप जलता ही रहा।
 
अंधेरी गलियों में मन की भटकन कभी जोश बुझा देती है,
अधूरी कल्पनाओं पे आरजुओं का संतुलन बनाए रखा।
आईने में अपना-सा बनके, आंखों से मोती-सा झर के,
फूलों के घर रहकर कंटक में, महक को बरकरार रखा ।
और ! लम्हा-लम्हा मेरी आशाओं का वो दीप जलता ही रहा।
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