कविता : मेरे कमरे की खिड़की

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पुरूषोत्तम व्यास 
 
मेरे कमरे की खिड़की
मुझे बड़ी  प्यारी लगती
जब भी थका-हाराअपने कमरे में आता
मेरा मन बहलाती...

प्रकृति के हर आनंद में संग रहती
उसके संग देखता 
चहकते हुए पंक्षि‍यों को
डोलते हुए वृक्षों को
खिलते हुए सुमनों को
बरसते हुए मेघों को......
 
मेरे कमरे की खिड़की संग
देखता 
जीवन के हर रंग
खिलखिलाता बचपन
बहकती हुई जवानी
लड़खड़ाता हुआ बुढ़ापा.....
 
मेरे कमरे की खिड़की ने, कभी नहीं की कोई शिकायत 
हर सुख-दुख में संग रही  मेरे कमरे की खिड़की
बहुत सुंदर
 मेरे मन को भी सुंदर कर देती...
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