हिन्दी कविता : वो खेति‍हर

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निशा माथुर 
गीली लकड़ी-सा, धीमा-सा धुंआ-धुंआ सुलग रहा है, 
तन के हारे, मन के हार यहां-वहां सा,भटक रहा है। 

अपनी ख्वाहिशों के पंख खुजाते, आंख मिचौली करती-सी किस्मत
सूरज के इरादों को आंखे तरेरता,
छिपा हुआ बादल कभी तो रूप बदलेगा
। 


 
दरकती हुई-सी जमीन की सूखी पपड़ी और उसका अन्न के दाने निकालने का ये हुनर,
बिना छत बरसात बिताता, दिवास्वप्न-सा जीता, चाहे कुछ दाने उसकी मुटठी में भी ना हो गर।
 
औरो की खुशि‍यों संग अपने जख्मों को सीना,
प्रभात बेला में पंछि‍यों का मधुर गान उसकी वीणा।

 
मां-सी धरती, बहता-सा पानी, मेहनत भरा पसीना,
आंखें चमक जाती हैं, जब आता सावन का महीना
 
क्यूं कर नहीं होती उसपे देवी देवताओं की मैहर,
क्यूं बरपा करता है उसपे ही ये कुदरत का कहर
 
पहचान थी गरीबी जो माथे की सलवटें बन गयी,
उसकी मासूम नजरें आज समाचारों का हर्फ बन गयी।
 
आजकल खेल रही, खेतीहर संग राजनीति भी चौसर,
आत्महत्याओं पर उसके लग रही है नेताओं की मोहर।
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