कविता : देर कितनी लगती है

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सपना मांगलिक
 
आज वक्त का साथ नहीं है
अच्छी कोई बात नहीं है
टूटे को जुड़ जाने में
बिगड़े को बन जाने में
पल भर ही तो लगती है
तकदीर सवंरने में आखिर
देर कितनी लगती है
सपना टूट गया तो क्या
कोई रूठ गया तो क्या
ये जग छूट गया तो क्या
जुदाई किसको अच्छी लगती है
कोशिश करो उसे मनाने की
मोम के पिघलने में आखिर
देर कितनी लगती है
सब टेढ़ा कहीं सीध नहीं है
अंखियों में भी नींद नहीं है
वक्त-वक्त की बात है मानुष
जुट जाओ पूरी मेहनत से अपनी
सपने सच होने में आखिर
देर कितनी लगती है
हारकर जीत जाने में
बस पल भर ही तो लगती है
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