कविता : उड़ती अफवाहें

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अफवाहें भी उड़ती/उड़ाई जाती हैं 
जैसे जुगनुओं ने मिलकर 
जंगल में आग लगाई
तो कोई उठे कोहरे को
उठी आग का धुंआ बता रहा
तरुणा लिए शाखों पर उग रहे
आमों के बोरों के बीच 
छुप कर बैठी कोयल
जैसे पुकार कर कह रही हो
बुझा लो उड़ती अफवाहों की आग 
मेरी मिठास सी कुह-कुहू पर ना जाओ 
ध्यान ना दो उड़ती अफवाहों पर 
सच तो यह है कि अफवाहों से
उम्मीदों के दीये नहीं जला करते 
बल्कि उम्मीदों पर पानी फिर जाता है
'दिसंबर 2012' की उड़ी अफवाह से
अब ख्व्वाबों मे् भी नहीं डरेगी दुनिया 
इसलिए ख्वाब कभी अफवाह नहीं बनते
और यदि ऐसा होता तो अफवाहें 
मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे,गिरजाघर से 
अपनी जिंदगी की भीख 
भला क्यों मांगती ?
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