कविता : स्वयं गढ़ना है मुझे

जयति शर्मा
स्वयं गढ़ना है मुझे हाथों में अपनी सुरेखाएं,
भूल कर अवसाद तय करना है प्रगति की दिशाएं
कामना है मन में और मस्तिष्क में वह तेज हो
मौन दृष्टि से हरा दूं बल भरी शत्रु भुजाएं।।
भेद जाऊं शिला का अभिमान बन करके लहर
दीपक बनूं मैं और जलाा दूं क्रूरतम तम का कहर
पुण्य दीप्ति से भरा हो मेरा हर एक कर्म मोती
जग को आलोकित करें मंगल विचारों की प्रभाएं।।  
 
शौर्यमय आग्नेय रवि को भाल पर अपने सजा लूं 
शीत किरणें चंद्रमा की अपने अंतस में बसा लूं 
ज्ञान रत्नों को समेटूं रत्नगर्भा बन सकूं मैं
सत्य, साहस से भरी हों मेरे तन की सब शिराएं।। 
स्वयं गढ़ना है मुझे हाथों में अपनी सुरेखाएं
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