हिन्दी पर कविता : विलुप्त होते शब्द

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- ©ऋचा दीपक कर्पे

डर-सा लगने लगा है
एक चिंता लगी रहती है
कि विलुप्त होते जा रहे हैं 'शब्द'
 
हमारी बातचीत में घुले-मिले शब्द
विस्थापित होने लगे हैं
और अपनी ही भाषा के शब्द
लोगों को अजीब लगने लगे हैं!!
 
'नमस्कार' अब 'हैलो' है
तो 'बधाई' 'कांग्रेट्स' हो चली हैं..
'सुप्रभात' की जगह होने वाली
'गुड मॉर्निंग' मुझे सदा खली है..
 
जन्मदिन की बधाई की जगह
'हैप्पी बर्थडे' ने ले ली है
तो 'ॐ शाँति' धीरे से
'आर.आय.पी' हो चली है..
 
पीले, गुलाबी और नीले रंग में
न चमक हैं न मज़े हैं
'येलो पिंक एंड ब्लू' से
सारे बाजार सजे है!!
 
सेब, केला और संतरा अब
कहां रसीला लगता है?
'एप्पल बनाना ऑरेंज' कहो तो
फलों का स्वाद बढता है..
 
बॉस और लडके वालों को
भोजन पर बुलाने से काम नहीं बनता है
उन्हें 'लंच-डिनर' पर 'इनवाइट' करो
तब कहीं जरा 'स्टैंडर्ड' बढ़ता है!
 
बस्ता पुस्तक डिब्बा कलम कहोगे
तो अनपढ़ नज़र आओगे
'बैग बुक्स टिफिन पेन' कहने पर ही
पढ़े-लिखे समझे जाओगे!!
 
सहेलियां और दोस्त अब 'फ्रैंड्स' 
इश्क 'लव' प्रेमी 'बॉयफ्रेंड' कहलाता है
अब दिल नहीं टूटा करते जनाब
सीधा 'ब्रेकअप' हो जाता है
 
शुद्ध हिन्दी अब केवल 
साहित्यकारों तक ही सीमित है
आज जमाना 'हिंग्लिश' का है
गाने भी 'हिंग्लिश' हों तो 'सुपरहिट' हैं
 
ऐसी कठिन परिस्थिति में
एक ही बात सुकून दे जाती है 
कि 'कविता' आज भी स्तरीय मानी जाती है
'पोयम' से 'जॉनी जॉनी' की ही याद आती है...। 
 
 

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