साहित्य कविता : सपने...

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- प्रहलाद सिंह कविया 'प्रांजल'
 
और किसी को मत चाहो तुम, बस सपनों से प्यार करो, 
सपनों तक जाने वाला हर, कंटक पथ स्वीकार करो। 
 
भटक-भटककर मत भटको तुम, मतवालों की मस्ती में, 
होती हैं बस मधुशालाएं, उन लोगों की बस्ती में।
 
मानव मन के जवां हौसले, पर्वत चीर दिया करते हैं, 
मिटती नहीं वीरों की हस्ती, मरकर वीर जिया करते हैं। 
 
कृषक श्रम की बूंदें पाकर, तन धरणी का हरा होता है, 
तपकर अगणित चोटें सहकर ही तो स्वर्ण खरा होता है।
 
आकाश नापने की खातिर, निज पंखों का विस्तार करो, 
सपनों तक जाने वाला हर कंटक पथ स्वीकार करो। 
 
जुल्फों के घेरे ढंक लेंगे, अंतरमन की चीखों को, 
मन की मादकता डस लेगी, जीवन पथ की सीखों को। 
 
बीच भंवर पतवार को थामो, लहरों में जरा संभलकर, 
चलो निरंतर मत बैठो, यूं ही हाथों को मलकर। 
 
लगन अगर सच्ची हो तो, बन जाते सेतु जल पर, 
इतिहास उन्हीं का होता है, जो रखते पांव अनल पर।
 
इस जीवन की आपाधापी को, आर करो या पार करो, 
सपनों तक जाने वाला हर कंटक पथ स्वीकार करो।
 
इक-इक तिनका संघर्षभरा, लगता सुदृढ़ घोंसलों से, 
खुद थार हार जाया करता, पथिकों के तंज हौसलों से।
 
संतान बचाने को हिरनी भी, सिंहों संग अड़ जाती है, 
हो बात आन पर तोपों संग, तलवारें भी लड़ जाती हैं।
 
जीवन बनता बाधाओं से, पांवों में चुभती शूलों से, 
बस एक ही मौका मिलता है, बच जाना सब भूलों से।
 
मन में नव हिन्दुस्तान लिए बल पौरुष का संचार करो, 
सपनों तक जाने वाला हर कंटक पथ स्वीकार करो। 
 
 
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