शब्द पर कविता

सलिल सरोज
शब्द








अगर इतने ही
समझदार होते
तो खुद ही
गीत, कविता,
कहानी, नज्म,
संस्मरण या यात्रा-वृत्तांत
बन जाते।
 
शब्द
बच्चों की तरह
नासमझ और मासूम
होते हैं
जिन्हें भावों में
पिरोना पड़ता है
अहसासों में
संजोना पड़ता है
एक अक्षर
के हेर-फेर से
पूरी रचना को आंख 
भिगोना पड़ता है।
 
जैसी कल्पना मिलती है
शब्द, बच्चे की भांति
वैसा रूप ले लेता है
जैसी भावना खिलती है
वैसी धूप ले लेता है।
 
शब्द और बच्चे
एक से ही हैं
श्रेष्ठ कृति के लिए
दोनों को
पालना पड़ता है
समय निकाल के
संभालना पड़ता है
तब जाके
एक अदद इंसान
की तरह
एक मुकम्मल
रचना तैयार होती है।

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