पर्यावरण पर कविता : क्या मैं लिख सकूंगा

सुशील कुमार शर्मा
कल एक पेड़ से मुलाकात हो गई। 
चलते-चलते आंखों में कुछ बात हो गई। 







 

 
 
बोला पेड़ लिखते हो संवेदनाओं को। 
उकेरते हो रंग भरी भावनाओं को। 
क्या मेरी सूनी संवेदनाओं को छू सकोगे ?
क्या मेरी कोरी भावनाओं को जी सकोगे ?
मैंने कहा कोशिश करूंगा कि मैं तुम्हे पढ़ सकूं। 
तुम्हारी भावनाओं को शब्दों में गढ़ सकूं। 
बोला वो अगर लिखना जरूरी है तो मेरी संवेदनाएं लिखो तुम। 
अगर लिखना जरूरी है तो मेरी भावनाएं लिखो तुम।  
क्यों नहीं रुक कर मेरे सूखे गले को तर करते हो ?
क्यों नोंच कर मेरी सांसे ईश्वर को प्रसन्न करते हो ?
क्यों मेरे बच्चों के शवों पर धर्म जगाते हो ?
क्यों हम पेड़ों के शरीरों पर धर्मयज्ञ करवाते हो ?
क्यों तुम्हारे सामने विद्यालय के बच्चे तोड़ कर मेरी टहनियां फेंक देते हैं ?
क्यों तुम्हारे सामने मेरे बच्चे दम तोड़ देते हैं ?
हजारों लीटर पानी नालियों में तुम क्यों बहाते हो ?
मेरे बच्चों को बूंद-बूंद के लिए तुम क्यों तरसाते हो ?
क्या मैं तुम्हारे सामाजिक सरोकारों से इतर हूं ?
क्या मैं तुम्हारी भावनाओं के सागर से बाहर हूं ?
क्या तुम्हारी कलम सिर्फ हत्याओं एवं बलात्कारों पर चलती है ?
क्या तुम्हारी लेखनी क्षणिक रोमांच पर ही खिलती है ?
अगर तुम सचमुच सामाजिक सरोकारों से आबद्ध हो। 
अगर तुम सचमुच पर्यावरण के लिए प्रतिबद्ध हो। 
लेखनी को चरितार्थ करने की कोशिश करो। 
पर्यावरण संरक्षण को अपने आचरण में लाने की कोशिश करो। 
कोशिश करो कि कोई पौधा न मर पाए। 
कोशिश करो कि कोई पेड़ न कट पाए। 
कोशिश करो कि नदियां शुद्ध हो। 
कोशिश करो कि अब न कोई युद्ध हो। 
कोशिश करो कि कोई भूखा न सो पाए। 
कोशिश करो कि कोई न अबला लूट पाए। 
हो सके तो लिखना की नदियां रो रही हैं। 
हो सके तो लिखना की सदियां सो रही हैं। 
हो सके तो लिखना की जंगल कट रहे हैं। 
हो सके तो लिखना की रिश्ते बंट रहे हैं। 
लिख सको तो लिखना हवा जहरीली हो रही है। 
लिख सको तो लिखना कि मौत पानी में बह रही है।  
हिम्मत से लिखना की नर्मदा के आंसू भरे हुए हैं। 
हिम्मत से लिखना की अपने सब डरे हुए हैं। 
लिख सको तो लिखना की शहर की नदी मर रही है। 
लिख सको तो लिखना की वो तुम्हे याद कर रही है।
क्या लिख सकोगे तुम गोरैया की गाथा को? 
क्या लिख सकोगे तुम मरती गाय की भाषा को ?
लिख सको तो लिखना की तुम्हारी थाली में कितना जहर है। 
लिख सको तो लिखना की ये अजनबी होता शहर है। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना की शिक्षा सड़ रही है। 
नौकरियों की जगह बेरोजगारी बढ़ रही है। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि नैतिक मूल्य खो चुके हैं। 
शिक्षक हो इसलिए लिखना कि शिक्षक सब सो चुके हैं। 
मैं आवाक् था उस पेड़ की बातों को सुनकर। 
मैं हैरान था उस पेड़ के इल्जामों को गुन कर। 
क्या वास्तव में उसकी भावनाओं को लिख पाऊंगा?
या यूं ही संवेदना हीन गूंगा रह जाऊंगा। 
 
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