हिन्दी कविता : जागी हूं तो

निधि सक्सेना
आज रात नींद से 
नैनों पर तिरने की
और पलकों पर उतरने  की
बेवजह कोई गुहार नहीं ...
जागी हूं तो
पिछले पड़े हुए काम निपटा लूं..
बासी पड़ा है नभ
इसे बुहार दूं..
मटियाली है हवा 
इसे छान लूं..
गंदले हुए हैं तारे सारे..
उन्हें मांज कर वापस रख दूं..
जहां तहां से उधड़े बादल..
बखिया कर दूं..
बिखर गई है चांदनी..
करीने से उसे बिछा दूं.
 
गृहणी हूं
बीनना मांजना
सीना पिरोना
इतना ही भर आता है..
अच्छा लाओ तुम्हारा मन 
उस पर आश्वस्ति के बटन टांक दूं
नेह के धागे में आंके बांके भाव पिरो दूं..
 
वहां क्षितिज पर
ख़्वाहिशों की हाट लगी है
मोल भाव करुं
सस्ती हो तो
कुछ आंचल में भर लूं..
 
अच्छा सुनो कुछ पैसे दे देना
कि उनको श्रद्धा समर्पण
नेह और विश्वास की निधि
से बदली कर दूं..
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