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हिन्दी कविता : अपात्र
Webdunia
- पंकज सिंह
किधर चले कथा के पात्र
समाज से निष्काषित
अपनों से प्रताड़ित
शरीर से पीड़ित
मन से तड़ित
हो अपात्र हो अपात्र
कोई और चाहे या ना चाहे,
है कोई चाहता है तुम्हे
अठखेलियां करता
खेलता
पल पल जीता
जुदा होने की सोच से डरता
हर लम्हे हर लम्हे
लगा के ऐनक
काठ की बना देता कठपुतली
बालक सी जबान देता तुतली
जवान हाथों में दिखती मुरली
छीन कर ओज पूछता तीर सुध कुनली
है वह लेखक, है वह लेखक
लडाका सिर्फ युद्ध करता
रण में सब जायज होता
जीतने वाला इतिहास में नायक होता
हारा हुआ खलनायक होता
अश्वधामा होता
ना जीता ना मरता कोढ़ लिए फिरता रहता
मां मां दुगना मां का प्यार भांजा भोगता
भांजे की खातिर राजपाट छोड़ आया
नाम शकुनी धराया
अपने राजपाट का सवाल जब आया
कंस कहलाया
मामा को भी नहीं छोड़ता, मामा को भी नहीं छोड़ता
पिता की लंबी उम्र देखकर,
हुआ पुत्र बेचैन
वारिस मांगता तख़्त है
बादशाह का अब नहीं वक्त है
कैद नहीं तो रक्त है
खैर नहीं बचा हो अंध भक्त है
पुत्र का दावा सुनकर
पिता को ना दिन को चैन ना रात को चैन
राजतंत्र के बाद लोकतंत्र,
सत्ता मारे मंत्र
कल को आज में बदल दो
सड़कों के नाम बदल दो
शहरों के नाम आज से पहले वाला बदल दो
सबकुछ उल्टा पुल्टा बदल दो
बदल दो बदल दो सरकार बदल दो,
सन्न देख जनता का तंत्र मंत्र
किधर चले कथा के पात्र
समाज से निष्काषित
अपनों से प्रताड़ित
शरीर से पीड़ित
मन से तड़ित
हो अपात्र हो अपात्र।
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