हिन्दी कविता : सूरज

संजय वर्मा 'दृष्ट‍ि'
शाम हुई थका सूरज
पहाड़ों की ओट में
करता विश्राम।
 
गुलाबी, पीली चादर 
बादल की ओढ़े
पंछियों के कोलाहल से
नींद कहां से आए।
 
हुआ सवेरा
नहाकर निकला हो नदी से
पंछी खोजते दाना-पानी
सूरज के उदय की दिशा में।
 
सूर्य घड़ी प्रकाश बिना सूनी
जल का अर्घ्य स्वागत हेतु
आतुर हो रहीं हथेलियां।
 
सूरज के ऐसे ठाठ
नदियों के तट सुप्रभात के संग
देवता और इंसान देखते आ रहे।
 
इंसान ढूंढ रहा देवता
ऊपर देखे तो
देवता रोज दर्शन देते
ऊर्जा का प्रसाद
देते रोज सभी को धरा पर।
 
सूरज के बिना जग अधूरा
ब्रह्मांड अधूरा
प्रार्थना अधूरी। 
 

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