वसंत पंचमी पर कविता : बसंत पहने स्वर्णहार

सपना सीपी साहू 'स्वप्निल'
बसंत पहने स्वर्णहार, सुख बरसे द्वार-द्वार।
चहुँओर नव बहार, मधुमास लाए नवाकार।।  
उषा किरणें पुलकित, बसंत सुहानी प्रफुल्लित।
प्रकृति आनंदित, रम्य अद्भुत छटा आलौकित।। 
श्रृंगारित पलाश, सेमल,  हरे-भरे खेत, उद्यान ।
सूर्य उज्जवल, अल्प निशा, दीर्घ हुए दिनमान।।
 
बसंत पहने स्वर्णहार....
नयन देखे नवउजास, पल्लव कुसुमित सुहास।
शीत बयार, मादक महुआ, मयूर सुस्वर रास।।
भीनी महकी पगडंडियाँ, अंकुरित  क्यारियाँ।
पीतवर्णी फूलवारियाँ, धरा पर आई खुशियाँ।।
 
बसंत पहने स्वर्णहार.... 
नव कोपल पात-पाती, उमंगी नृत्य तरू डाली।
सुंगधित केशर पटधारी, पीली सरसों हर्षाली।। 
महकी दिशाएं सारी, सरसी कलियाँ लुभाती।
तितलियाँ रंग बिखराती,भौरे की भ्रमर सुहाती।।
 
बसंत पहने स्वर्णहार....
अम्बियाँ मोर आए, कोकिला कुहूँके गीत गाए।
तटिनी गुनगुनाए, पशु-पक्षी वन विचर हर्षाए।।
स्वर्णिमबेला रागिनी गाए, अचल ऐश्वर्य सुहाए।
प्रेम ऋतु का बसंत पर्याय, प्रेम, प्रीत मनभाए।।
 
बसंत पहने स्वर्णहार....
शारदे प्राकट्य दिवस पंचमी, रीति विधि पूजाए।
शिव-शक्ति प्रणय महाशिवरात्रि उल्लास मनाए।।
फाल्गुन कृष्ण गीत गाए, राधे-गोपियाँ इठलाएं।
ऋतुराज में दशदिश, सृष्टि आमोद-प्रमोद पाएं।।
 
बसंत पहने स्वर्णहार, सुख बरसे द्वार-द्वार।
चहुँओर नव बहार, मधुमास लाए नवाकार।। 
 
 

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