हिन्दी कविता : यह सच है...

राकेशधर द्विवेदी
जाड़े की सुनसान सड़क पर


 
थिरक रहा पिज्जा हट और मॉल का शोर
दौड़ रहीं वातानुकूलित कारें
फाइव स्टार होटल और धनवाले
खूबसूरत-सी इंपोर्टेड कार में
श्वानराज विराजमान है
अपने भाग्य पर कर रहे अभिमान है
 
मालिक ने नहला-धुलाकर
प्यार से उन्हें बैठाया है
उन्होंने भौं-भौं करके
मालिक को कृतार्थ कराया है
 
आ‍कर्षित हो श्वान से
एक बालक ठिठुरता सिहरता
पास उसके आ गया
गीत उसके प्रशंसा के गा गया
 
हे श्वानराज, विकासशील भीड़तंत्र के
तुम परिचायक हो
इस भीड़तंत्र में तुम हमारे अभिवाहक हो
क्यों नहीं संवारते हो हमारे भी भाग्य को
आमंत्रित क्यों नहीं करते हो सौभाग्य को
 
श्वानराज धीरे से मुस्कुराए
फिर बुदबुदाए
भीड़तंत्र श्वान गुण का ग्राहक है
स्वामीभक्ति और दुम हिलाने का परिचायक है
बोलने की जगह दुम हिलाना सीख लो
स्वामीभक्ति और चापलूसी से नाता जोड़ लो
तब तुम इस तंत्र में सफलतम कहलाओगे
अपनों के बीच व्यस्ततम बन जाओगे। 
 
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