पग-पग रावण मिलते अब तो,
कन्याओं को हर रहे हैं,
कुकर्म कर्म नित्य कर रहे हैं।
कभी भेष साधु का धरकर,
मंडप-महल सजाते हैं।
मौका पाय हैवान वे बनते,
दामन पर दाग लगाते हैं।
मीठी-मीठी बातों से अपनी,
अबलाओं को छल रहे हैं,
कुकर्म कर्म नित्य कर रहे हैं।
कभी छुपा रुस्तम बन वे,
पीछे से बाण चलाते हैं।
उनकी चतुर चौकड़ी में फंस,
उन्हीं को व्यथा सुनाते हैं।
समय देखकर हरण हैं करते,
कलियों को कैसे मसल रहे हैं,
कुकर्म कर्म नित्य पग-पग।
सब खिलाफत कर नहीं पाते,
मन मसोस रह जाते हैं।
कुछ लोगों के डेरे पर तो,
नेता-अफसर आते हैं।
अनदेखी जनता जब करती,
तब अइसे रावण सफल रहे हैं,
कुकर्म कर्म नित्य कर रहे हैं।