गुमनाम आवाज़ों के लश्कर में खोई-खोई बहार है, रुठा-रुठा मौसम है कैसा उदास मंज़र है इसमें तुम और मैं दीवानों की मानिंद मिलकर कैसे जिंदगी की बात करें शहरों की बौखलाई सड़कों पे रफ़्तार में बंधा मौसम धूल और आवाज़ों का समंदर कितनी ऊब है यहां, इसमें, तुम और मैं दीवानों की मानिंद मिलकर कैसे जिंदगी की बात करें।
सवेरे की सोचते हैं रह-रह के उदासियों के स्याह अंधेरे कड़कती बिजलियों का साया कोई हमसाया तो हो नहीं सकता, ऐसे में तुम और मैं दीवानों की मानिंद मिलकर कैसे जिंदगी की बात करें...